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जैन सिद्धान्त दीपिका
१२९ ४१. एक बालंबन पर मन को स्थापित करने तथा योग (मन, वचन
और काय) का निरोध करने को ध्यान कहा जाता है।
केवली के योगनिरोधात्मक ध्यान ही होता है। एकाप मनः सनिवेशन उनके लिए आवश्यक नहीं होता।
छप्रस्थों के ध्यान का कालमान अन्तर्मुहूर्त है।
४२. ध्यान के दो प्रकार हैं :
१. धर्ना २. शुक्ल
४३. आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इन चार ध्येयों वाला ध्यान धर्म्यध्यान है।
धर्म का अर्थ है--वस्तु का स्वभाव । जो धर्मयुक्त होता है उसे धर्म्य कहते हैं।
ध्येय की दृष्टि से उसके चार विकल्प होते हैं : १. आजा-आगम श्रुत में प्रतिपादित तत्त्व को ध्येय
बनाकर उसमें एकाग्र हो जाना। २. अपाय-राग-द्वेष आदि दोषों के उत्पत्ति हेतु, भयहेतु
मादि को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र हो
जाना। ३. विपाक-कर्म के विविध फलों को ध्येय बनाकर
उसमें एकाग्र हो जाना। ४. संस्थान द्रव्य की विविध आकृतियों तथा विभिन्न
पर्यायों को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र हो जाना।