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जैन सिद्धान्त दीपिका
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३१. आहार, पानी, वस्त्र, पात्र एवं कपाय आदि की अल्पता करने को ऊनोदरिका कहते हैं।
उपवास से पहले नमस्कारसहिता (नवकारसी) आदि जितनी तपस्या होती है, वह सब ऊनोदरिका के अन्तर्गत है।
३२. विविध प्रकार के अभिग्रहों (प्रतिज्ञाओं) से वृत्ति-चर्या का संक्षेप करना वृतिसंक्षेप है।
वृत्ति संक्षेप का दूसरा नाम भिक्षाचरिका है। ३३. विकृतियों का त्याग करना रसपरित्याग है।
घृत, दूध, दही आदि को विकृति कहा जाता है ।
३४. कायोत्सर्ग आदि आसन करना कायक्लेश है।
३५. इन्द्रिय आदि का बाह्य विषयों से प्रतिगहरण करना--उनकी वहिर्मुखवृत्ति को अन्नमवी बनाना प्रतिमलीनता है।
प्रतिसलीनता के चार प्रकार हैं : १. इन्द्रियनिग्रह ३. कपायनिग्रह २. योगनिग्रह
४. विविक्तणय्यासन निग्रह -- अकुशल चेप्टाओं में निवृनि और कुशल चेष्टाओं में
प्रवृत्ति। एकान्तवाम --स्त्री-पशु-क्लीव आदि कामोद्दीपक सामग्री
रहित स्थान में रहना। ३६. आभ्यन्तर तपस्या के छह भेद है : १. प्रायश्चित्त
२. विनय ३. वयावृत्त्य
४. स्वाध्याय