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________________ श्रीकृष्ण कथा-वासुदेव-बलभद्र का अवमान ३३७ सयोग से उसी समय व्याघ्रचर्म धारण किए, हाथ मे धनुष-बाण लिए जराकुमार उघर आ निकला। क्षुधा तृप्ति के लिए पशुओ का शिकार करना ही उसका कार्य था । श्रीकृष्ण के पीताम्बर को दूर से ही देखा तो उसे भ्रम हुआ कि कोई मृग बैठा है। उसने एक तीक्ष्ण तीर मारा । वाण लगते ही कृष्ण की निद्रा भग हो गई, वे उठ बैठे। उच्च स्वर मे कहा -यह वाण किसने मारा है ? विना नाम-गोत्र वताए प्रहार करना अनुचित है । वताओ तुम कौन हो? । जराकुमार ने वृक्ष की ओट से ही उत्तर दिया -हे पथिक । मैं दसवे दशाह वसुदेव और जरादेवी का पुत्र जराकुमार हूँ। श्रीकृष्ण और बलराम मेरे अग्रज है। इस वन में मुझे रहते बारह वर्ष हो गये है। भगवान अरिष्टनेमि की भविष्यवाणी सुनकर अग्रज कृष्ण की रक्षा हेतु वनवास कर रहा हूँ। आज तक मैंने इस वन मे किसी भी पुरुप को नहीं देखा। तुम बताओ कि तुम कौन हो? ____ इस परिचय से कृष्ण के मुख पर हल्की सी मुसकराहट फैल गई। शान्त स्वर मे उन्होंने जराकुमार को अपने पास बुलाया और द्वारकादहन आदि सम्पूर्ण घटनाएँ सुनाकर कहा -बन्धु होनी बडी प्रवल होती है और सर्वज्ञ के वचन अन्यथा नही होते । तुम्हारा यह वनवास निरर्थक ही रहा । यह सुनते ही जराकुमार के हृदय मे घोर पश्चात्ताप हुआ। वह कहने लगा --धिक्कार है मुझे ! मैंने अपने ही अग्रज को मार डाला। कृष्ण ने अवसर की गम्भीरता को देखकर उसे समझाया -जराकुमार | शोक मत करो। इस समय यादव कुल मे तुम अकेले ही जीवित हो । यदि वलराम आ गए तो तुम्हे भी मार डालेगे। -मेरा मर जाना ही अच्छा है। -जराकुमार ने अश्रु वहाते हुए कहा।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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