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जैन कथामाला भाग ३३
–महाराज | वलभद्र सरीखे एक व्यक्ति ने यह मुद्रिका देकर हलवाई से भोजन सामग्री खरीदी है । वह कोई चोर है अथवा स्वय बलभद्र, हमे यह नहीं मालूम । जैसी आजा हो, वैसा ही किया जाय । ___ अच्छदन्त ने मुद्रिका को उलट-पुलट कर देखा और निश्चय कर लिया कि वह व्यक्ति वलभद्र ही है। वदला लेने का अच्छा अवसर जानकर उसने नगर का द्वार वन्द करवा दिया और स्वय सेना सहित बलभद्र को मारने आ पहुँचा । वलभद्र चारो ओर से घिर गए। उन्होने भोजन एक ओर रखा और सिंहनाद करके सेना पर टूट पड़े।
बलभद्र का सिहनाद ज्यो ही कृष्ण के कानो मे पडा वे दौडे हुए आए । नगर के वन्द दरवाजे को पाद-प्रहार से तोड डाला और शत्रु पर टूट पडे । दोनो भाइयो ने मिलकर शत्रु सेना का त्रुरी तरह सहार "किया और अच्छदन्त के मद को धूल मे मिला दिया। . ___ अपना पराभव होते ही अच्छदन्त कृष्ण के चरणो मे आ गिरा तब उन्होने उसे उठाते हुए कहा___-अरे मूर्ख | हमारे भुजवल को जानते हुए भी तूने यह दुस्साहस किया। हमारी भुजाओ का वल कही चला नहीं गया है। फिर भी हम तेरा अपराध क्षमा करते है । जा और सुखपूर्वक शासन कर।
अच्छदन्त उन्हे प्रणाम करके राजमहल की ओर चला गया और दोनो भाई नगर से बाहर निकल आए। उद्यान मे बैठकर भोजन किया और दक्षिण दिशा की ओर चलते हुए कौशाम्बी बन मे आ पहुँचे ।
मार्ग की थकावट और गर्मी की तीव्रता से कृष्ण का गला सूखने “लगा । अनुज को तृपातुर देखकर बलराम ने कहा__~भाई । तुम इस वृक्ष के नीचे विश्राम करो। मैं अभी जल लेकर आता हूँ।
यह कहकर वलराम तो पानी लाने चले गए और कृष्ण वृक्ष के नीचे लेट गये । उनका एक पॉव दूसरे पर रखा था । थकावट के कारण उन्हे नीद आ गई।