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जैन कथामाला भाग ३३
- प्रभु! यद्यपि आप सावध कर्म से विरत है किन्तु इस समय यादव कुल को बचाने के लिए कुछ लीला तो दिखाइये । यद्यपि आपके समक्ष जरासंध मच्छर है किन्तु इस समय उसकी उपेक्षा उचित नही ।
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मातलि की ओर देखकर प्रभु ने उसका अभिप्राय समझा और अपना पौरन्दर नाम का शख फेंक दिया। शख ध्वनि दिशाओ मे गंज गई । यादव सेना स्थिर हुई और शत्रु सेना अस्थिर । सारथी ने उनका रथ समस्त रणभूमि मे घुमाया । अरिष्टनेमि ने हजारो ही वाण वरसाए । किसी का रथ भग हो गया तो किसी का क्षेत्र और कोई-कोई तो शस्त्र विहीन ही हो गया । उनके अतुल पराक्रम के समक्ष युद्ध की तो बात ही क्या, किसी का सामने आने का भी साहन नही हुआ । अकेले अरिष्टनेमि ने ही एक लाख मुकुटधारी राजाओ को भग्न कर दिया । प्रतिवासुदेव वासुदेव द्वारा ही वध्य होता है-इस नियम की मर्यादा को ध्यान मे रखकर उन्होने जरासध को मारा नही |
इतने मे वलराम भी स्वस्थ हो गए और यादव सेना का जोग भी द्विगुणित हो गया । पुन. सेनाओं मे युद्ध होने लगा । जरासघ ने कृष्ण के सम्मुख आकर कहा
- कृष्ण ! अब तक तो तुम कपट से जीवित रहे । छल और प्रपच से ही तुमने कस को मारा और कालकुमार को काल कवलित किया । अव मरने के लिए तैयार हो जाओ ।
मुस्कराकर कृष्ण ने उत्तर दिया
- व्यर्थ की वातो से क्या लाभ ? शक्ति दिखाओ ।
जरासंध और कृष्ण परस्पर भिड़ गए । धनुप-वाण, खड्ग, गदा आदि सभी युद्धो मे जरासंध की पराजय हुई । तत्र उसने अमोघ अस्त्र चक्र का प्रयोग किया किन्तु वह भी कृष्ण की प्रदक्षिणा देकर उनके हाथ मे आ गया । एक वार कृष्ण ने उसे फिर सावधान किया किन्तु जरासध न माना । चक्र का प्रयोग करके उन्होने जरासंध का शिरच्छेद कर दिया |