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-हे स्वामिन् ! यद्यपि आपके साथ श्रीकृष्ण जैसे महायोद्धा और अरिष्टनेमि जैसे अतुलित वली है। अकेले कृष्ण ही जरासध को जीतने मे समर्थ है। फिर भी आप हमे अपना सेवक समझिए। आपको हमारी सहायता की आवश्यकता तो नहीं है किन्तु जरासध के साथ कुछ विद्याधर हैं। उन्हे रोकने के लिए वसुदेवजी के नेतृत्व मे प्रद्युम्न तथा शाव कुमारो को हमारे साथ भेज दीजिए।
समुद्रविजय ने उन विद्याधरो की वात स्वीकार कर ली। उस समय अरिष्टनेमि ने अपनी भुजा पर जन्मस्नात्र के अवसर पर देवताओ द्वारा वॉधी गई अस्त्रवारिणी ओषधि वसुदेव को दे दी।
जरासध ने अपना शिविर कृष्ण के पडाव से चार योजन दूर लगा दिया। उस समय उसके नीतिमानमत्री हसक ने कहा
-हे स्वामी | शत्रु का बलावल विचार करके ही युद्ध करना चाहिए।
-तुम्हारा आशय क्या है ?
-राजन् । यादवो मे अकेले वसुदेव ने ही कई वार आपको अपनी कुशलता दिखाई है जिसमे अव तो उनकी ओर एक से एक वढकर वली है। अरिष्टनेमि, दशों दशाह, कृष्ण, पाँचो पाडव आदि और हमारी ओर अकेले आप | कही कस का सा-दुष्परिणाम न हो। ___मत्री के वचन सुनकर जरासध जल उठा । रोपपूर्वक वोला
-सभवत यादवो ने तुम्हे रिश्वत दे दी है। तुम उनसे मिल गए हो। इसी कारण ऐसे खोटे वचन बोल रहे हो।
यह दुर्वचन नही नीतिपूर्ण सलाह है। ___--धिक्कार है तुम्हे जो रणभूमि से पीठ दिखाने की राय दे रहे हो । मैं अकेला ही शत्रु सेना को भस्म कर दूंगा।
तभी डिभक नाम का दूसरा मत्री बोल उठा
- सत्य है महाराज | रणभूमि मे पीठ दिखाना क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध है । फिर युद्ध करते हुए मरने से लोक मे यश और परलोक मे