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श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र को इस ढंग में वर्णित करने मे समवत धार्मिक पूर्वाग्रह ही प्रमुख कारण रहा होगा ।
जैन परंपरा में श्रीकृष्ण
जैन साहित्य मे श्रीकृष्ण पर विस्तृत जानकारी उपलब्ध होती है द्वादशागी के अतर्गत अतकृत्दशाग (द्वारका का वैभव, गजसुकुमाल की कथा, द्वारका का विनाश और कृष्ण का देहत्याग ), समवायाग ( कृष्ण और जरासन्ध का वर्णन ), णायाधम्मकहाओ ( थावच्चापुत्र की दीक्षा, अमरकका जाकर द्रौपदी को लाने का वर्णन), स्थानाग ( कृष्ण की आठ अग्रमहिपियो के नाम और उनका वर्णन ), प्रश्नव्याकरण ( श्रीकृष्ण द्वारा अपनी दो अग्रमहिषियोरुक्मिणी और पद्मावती को लाने के लिए हुए युद्धो का वर्णन ), आदि मे उल्लेख मिलता है ।
आगमेतर साहित्य मे श्रीकृष्ण वर्णन क्रमवद्ध रूप से प्राप्त होता है । उनमे मे प्रमुख ग्रन्थ निम्न है
(१) वसुदेव हिडी - यह जैन वाड्मय का सर्वाधिक प्राचीन कथा ग्रन्थ माना जाता है । इसके रचयिता सघदास गणी हैं। इसमे कृष्ण की अपेक्षा उनके पिता वसुदेव का चरित्र अधिक विस्तार व सरसता के साथ वर्णित किया गया है। पीठिका मे कृष्ण - पुत्र प्रद्युम्न, शाव को कथा और कृष्ण की अग्रमहिपियो और वलदेव का चित्रण है । देवकी लम्भक मे कृष्ण जन्म आदि का वर्णन है । कौरव पांडवों का भी संक्षिप्त वर्णन है ।
(२) चउप्पन महापुरिस चरिय - यह आचार्य शीलाक की कृति है । इसके ४६, ५०, ५१ वे अध्याय मे कृष्ण - वलदेव का जीवन चरित्र है ।
(३) नेमिनाह चरिउ - यह आचार्य हरिभद्र सूरि द्वितीय की रचना है | इसमे भी कृष्ण का जीवन-चरित्र वर्णित हुआ है ।
(४) भव-भावना -- इसकी रचना मलधारी आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने सन् १९७० ई० से की है। इसमे कम वृतान्त, वमुदेव-देवकी विवाह, कृष्णजन्म, कस- वध आदि विविध प्रसंगो का वर्णन है ।
(५) कण्ह चरित -- यह देवेन्द्र सूरि की रचना है । इसमे वसुदेव और कृष्ण का विस्तृत जीवन चरित्र है ।