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श्रीकृष्ण-कथा-लौट के वसुदेव घर को आये
रोहिणी ने पति को मुस्करा कर देखा और बोली
-मैं हमेशा प्रज्ञप्ति विद्या को पूजती हूँ। एक वार उसने मुझे बताया-'दशवॉ दशाह तुम्हारा पति है । वह तुम्हारे स्वयवर मे ढोल वादक के वेश मे आएगा ।' वस मैने आपको पहचान गई और आपका वरण कर लिया। वसुदेव की जिज्ञासा शात हो गई।
x एक बार समुद्रविजय आदि सभी राजसभा मे बैठे थे। उसी समय एक अघेड स्त्री आशीप देती हुई आकाग से उतरी । उपस्थित जन उसकी ओर देखने लगे । स्त्री वसुदेव से बोली
-मैं वालचन्द्रा की माता धनवती हूँ। मेरी पुत्री सब कामो मे निपुण है किन्तु तुम्हारे वियोग मे सब कुछ भूल गई है। इसलिए मै तुम्हे लेने आई हूँ।
धनवती की बात सुनकर वसुदेव की दृष्टि अग्रज समुद्रविजय की ओर उठ गई । अग्रज ने अनुज की मनोभावना पहचानी। वे मद स्मित पूर्वक बोले
-जाओ। परन्तु पहले की तरह गायव मत हो जाना, शीघ्र वापिस लौटना। __ वसुदेव कुछ कह पाते उससे पहले ही धनवती ने कह दिया
-आप चिन्ता न करे, मैं इन्हे शीघ्र ही विदा कर दूंगी। आप जाने की आज्ञा दीजिए।
--आप तो विदा कर ही देगी। परन्तु यह भी तो वचन दे। यदि वीच मे ही कही दूसरी जगह रुक गया तो । -~-शीघ्र ही जाऊँगा -वचन देना ही पडा वसुदेव को। -तो जाओ। समुद्र विजय ने आज्ञा दे दी।