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जैन कथामाला भाग ३१
'वत्स' 'वत्स' कहते हुए वसुदेव की ओर दौड पडे मानो गाय चिरकाल से विछडे अपने वत्स (बछडे) से ही मिलने जा रही हो। वसुदेव ने भी अस्त्र-शस्त्रो के वधन तोडे और बछडे के समान ही अग्रज के चरणो मे जा गिरे।
प्रेम विह्वल अग्रज ने अनुज को उठाया और अक से लगा लिया । समुद्रविजय की भुजाओ का दृढ बधन अनुज की पीठ पर कस गया ।
वहुत देर तक दोनो भाई लिपटे रहे। दोनो की आँखो से प्रेमात्र वह रहे थे। __ इस दृश्य को देखकर जरासघ वहाँ आया और वसुदेव को देखकर हर्षित हुआ। उसका कोप शात हो गया ।
युद्ध वन्द हो गया। प्रेम का वातावरण छा गया। राजा रुधिर को दगवे दशाह वसुदेव दामाद के रूप मे मिले। उसकी वाछे खिल गई।
विवाहोत्सव सपन्न होने पर जरासध तथा अन्य राजा अपने-अपने स्थानो को चले गए किन्तु यादवो को कस सहित राजा रुधिर ने आग्रहपूर्वक वही रोक लिया । वे भी वहाँ एक वर्ष के लिए रुक गए।
एकान्त मे वसुदेव ने रोहिणी से पूछा
-प्रिये । इतने वडे-बडे राजाओ को छोड कर मुझ ढोल बजाने वाले को ही क्यो चुना?
रोहिणी ने पहले तो मुस्कान बिखेरी और फिर उत्तर दिया- - -आप कितने ही छिपो, मै पहचान गई थी। -क्या ?-चकित हुए वसुदेव। -हॉ, मैं पहिचान गई थी कि आप दशवे दशाई और मेरे पति
-कैसे ?-वसुदेव की उत्सुकता बढी। -विद्या से।-रोहिणी ने उनकी उत्सुकता और वढाई ।
-वताओ, हमे भी तो मालूम हो कौन सी विद्या है तुम्हारे पास । -वसुदेव की उत्सुकता आग्रह मे वदल गई।