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श्रीकृष्ण - कथा - लौट के वसुदेव घर को आये
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जरा नाम की पुत्री के साथ उनका विवाह कर दिया। जरा से वसुदेव के जराकुमार नाम का पुत्र हुआ ।
पल्ली से वसुदेव चले तो अवति सुन्दरी, सूरसेना, नरह ेपी तथा अन्य अनेक राजकन्याओ के साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित किये ।
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एक वार वसुदेव कही चले जा रहे थे । मार्ग मे किसी देवी ने आकर कहा
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हे वसुदेव । मैं तुम्हे रुधिर राजा की पुत्री रोहिणी के स्वयंवर मे पहुँचाए देता हूँ क्योकि तुम्हे वहाँ जाकर अन्य वादको के साथ ढोल (पटह) वजाना है ।
वसुदेव कुछ कह पाते इससे पहले ही देव उन्हे स्वयंवर मंडप मै ने पहुँचा और उनके गले मे ढोल डाल दिया । अब वसुदेव को गने मे पहा ढोल बजाना ही पडा । अन्य वादको मे वे भी सम्मिलित हो गए । स्वयंवर मंडप अरिष्टपुर मे लगा हुआ था । वहाँ जरासंध आदि अनेक राजा विराजमान थे । समुद्रविजय भी अपने भाइयो सहित इस स्वयंवर मे सम्मिलित हुए थे ।
साक्षात् चन्द्रप्रिया रोहिणी के समान सुन्दर रूप वाली रुधिर पुत्री रोहिणीकुमारी ने सखियों के साथ स्वयंवर मंडप मे प्रवेश किया 1 उसके हाथो मे वरमाला आकाशस्थ नक्षत्रमाला के समान सुशोभित हो रही थी ।
राजकुमारी की रूप राशि से प्रभावित होकर सभी राजा सँभल कर बैठ गए । अनेक प्रकार की चेष्टाओ द्वारा वे रोहिणी को आकर्षित करने लगे । रोहिणी उन पर दृष्टिपात करती और आगे चल देती । उसे कोई राजा जँचा ही नही ।
वसुदेव का वेश बदला हुआ था । उनके ढोल बजाने का ढंग कुछ अलग ही था । विशिष्ट ताल-लय मे कुछ शब्द निकल रहे थे । रोहिणी के कानो वे शब्द पडे - 'हे मृगनयनी । यहाँ आओ । हरिणी की भाँति इधर-उधर मत भ्रमो । मै तुम्हारे योग्य पति हूँ ।'
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