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यदुवंश की उत्पत्ति तथा निकास
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सकता है पर अत्यन्त घृणित उत्कट दुर्गन्ध को वह किसी प्रकार नहीं जा पाता। मानव की नामिका के रोम-कृप सायद को भने म मा असमर्थ है इसलिए नन्दी की परीक्षा का ऐसा ही को उपाय सोच लेना चाहिए। यह निश्चय कर उनमें से एक देवभाषा नाग पना कर जहाँ नन्दीपेश मुनि ठहरे थे, वहां पास के एक जंगल में जाकर पर था। उस देव ने अपने शरीर को ऐसा ना लिया कि शरीर के छिद्रों में से रक्त प्रर मवाद बहने लगा उस रजत और पीव से न श्रम दुर्गन्ध निकल रही थी । इस प्रकार रागी सानु का सप धारण कर उस देवने दूसरे देव के साथ नन्दी
गुनि के पास समाचार भेजा कि पास के जंगल में एक साधु बहुत बीमारी का यवस्था मे पले है उनकी सेवा करने वाला कोई नही है. उन्हें बहुत अधिक कष्ट हो रहा है।
सुनियो जैसे ही यह समाचार मिले कि वे तुरन्त उन गंगा माधु की सेवा करने के लिए चल पडे । मुनि मन ही मन विद्याग्न लगे- "मेरा सौभाग्य है कि मुझे साधु सेवा का ऐसा सत्यवसर हाथ आया हूँ ।"