________________
wy
4)
जैन महाभारत
४०
के मुखसे भी सहसा उनकी प्रशंसा में हार्दिक उद्गार निकल पडे । वे कहने लगे कि
" नन्दीषेण मुनि ने इतना वडा वैयावृत्य आन्तरिक तप कर लिया है कि अब उनके लिए मेरे इस इन्द्र पद को प्राप्त कर लेना भी कुछ अर्थ नहीं रखता । सेवा की महिमा बड़ी निराली है । शास्त्रकारो ने मोक्ष प्रप्ति मे सेवा को सहकारी साधना माना है । "" तस्सेस मग्गों गुरुविद्ध सेवा” अर्थात् बालजनों के संग से दूर रहना, गुरुजन तथा वृद्ध अनुभवी महापुरुषों की सेवा करना तथा एकान्त मे रहकर धैर्यपूर्वक स्वध्याय, सूत्र तथा उसके गम्भीर अर्थ का चिन्तवन करना यही मोक्ष का मार्ग ( उपाय ) है । अत. जो इस सेवाव्रत मे पूरा उतर गया वह वस्तुतः देवाधिदेव बनने का अधिकारी हो जाता है । मै तो नन्दीषेण मुनि की उस अलौकिक सेवा-भावना को देख-देख कर परम प्रसन्न व पुलकित हो जाता हूँ और मेरे मुख से बरबस "धन्य" "धन्य" शब्द निकलने लग जाते है । " देवराज इन्द्र के मुख से ऐसे प्रशसा सूचक शब्द सुनकर दो देव मन ही मन सोचने लगे कि इन बड़े आदमियो का भी क्या कहना | जिसकी प्रशंसा करने लगते है उसको भी आकाश में चढ़ा देते है और जिसके विरुद्ध हो जाये उसका कहीं पाताल मे भी ठिकाना नहीं रहने देते । देखा न भाला; न परीक्षा की न जॉच पड़ताल यों ही बिना सोचे विचारे लग गये नन्दीषेण के प्रशंसा के पुल बांधने । सेवा धर्म को इन्होंने सामान्य कर्म ही समझ रक्खा है ।
तो क्यों न उस सेवा व्रती नन्दीषेण मुनि की वैयावृत्य भावना की परीक्षा की जाय, क्योंकि बिना कसौटी पर कसे तो किसी का खरेखोटे का पता चल नहीं सकता। हमारी परीक्षा तो ऐसी होगी जिससे
दूध के दूध और पानी के पानी का पता लग जाय । इस परीक्षा से दोनों प्रकार से लाभ होगा, क्योंकि यदि वह हमारी परीक्षा की कसौटी पर खरे उतरे तब तो उनके यश का सौरभ सारी सृष्टि मे अनन्त काल तक व्याप्त रहेगा और यदि वे उसमे सफल नहीं हो पाये तो उनकी कलाइ खुल जायगी । ढोंगियों के ढोंग का पर्दा फास हो जाने से समाज का कल्याण ही होता है ।
यही सब कुछ सोच विचार कर वे दोनों देव स्वर्ग से पृथ्वी पर उनर आये। उन्होने विचार किया कि मनुष्य और सब कष्टों को तो