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जैन महाभारत
मुनि - मेरे हाथो मे भी तो शक्ति नहीं है । तुम्हारे कधे पर चढ तो कैसे चढौं ।
न० मुनि - तो क्या हानि है ? मै स्वय ही अपने कधे पर बिठा लूँगा ।
सच्चा सेवक अपनी शक्ति को दूसरो की ही शक्ति मानता है और अपना तन, मन पर की सेवा के लिए समर्पित कर देता है । सेवा का यह आदर्श अगर जनसमाज के हृदय में अकित हो जाय तो यह ससार स्वर्ग बन जाय ।
नन्दीषेण मुनि ने उस देव को अपने कधे पर चढ़ा लिया | देव ने नदीषेण मुनिको सेवा की प्रतिज्ञा से विचलित करने के लिए अपने शरीर में से रक्त और पीव की धारा बहाई, मगर नन्दीषेण मुनि अपनी सेवा भावना को स्थिर और दृढ़ करते हुए देव के दुर्गन्धमय शरीर को उठाकर नगर की ओर चल पड़ा ।
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मुनि वेषधारी देव नन्दीषेण की इस अवर्णनीय सेवा भावना को देख कर मन ही मन गद् गद् हो गया किन्तु फिर भी उसके धैर्य की वह और भी परीक्षा करना चाहता था, इस लिये उसके कधे पर बैठाबैठा भी डाटता हुआ कहने लगा कि “अरे ! मिथ्या सेवाधारी मुनि नन्दी, तू व्यर्थ मे क्यो सेवा का ढोग रच रहा है तू यदि मुझे कधे पर उठा कर न ले जा सकता तो मत ले जा पर इतना तेज क्यो दौड रहा है ऐसी तेज चाल से तो हिचकोले या धचके लग लग कर मेरे जराजीर्ण शरीर की हड्डी -पसली ही एक हो जायगी । चलना है तो धीरेधीरे चल, नहीं तो मुझे यहीं उतार दे ।"
तब नन्दोषेण ने बड़े विनय से निवेदन किया कि "हे क्षमाश्रमण ! जैसी आपकी आज्ञा हो, मै तो इस लिये तेज चाल से चल रहा था कि शीघ्रातिशीघ्र आपकी चिकित्सा की व्यवस्था हो सके । किन्तु यदि मेरे
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तेज चलने के कारण आप को कष्ट पहुंचा है तो जमा कीजिए। मैं अब
11 ऐसी सावधानी से चलूगा कि आप को तनिक भी कष्ट न पहुँचे ।"
यह कह कर नन्दीपे बहुत मन्द गति से चलने लगा पर उस देव की परीक्षा तो अभी तक शेष थी। उसने नन्दीषेण की अन्तिम परीक्षा लेने के विचार से चलते-चलते अत्यन्त दुर्गन्धित अतिसार कर उसके सारे अगों को बुरी तरह सॉद दिया । किन्तु नन्दीषेण तो सेवाव्रत का