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द्रौपदी स्वयंवर
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पुत्री का विवाह उसके साथ कर सकता हूँ, अन्यथा नहीं । इस पर जिनदत्त ने अपने पुत्र के साथ परामर्श करके उत्तर देने के लिये कहा।
घर आकर सार्थवाह ने अपने पुत्र सागर से इस विषय की चर्चा की किन्तु वह पितृ लज्जा की दृष्टि से वह सर्वथा मौन ही रहा । अत 'मौन' सम्मति लक्षणम्' के अनुसार पुत्र के मनोगत भावों को जानकर
और बन्धु वर्ग से परामर्श कर सागरदत्त के यहाँ उसके शर्त की स्वीकृति की सूचना भिजवादी।
तदनुसार शुभ दिन में सुकुमालिका के साथ कुल परम्परा की वैवाहिक रीति के अनुसार बड़ी धूमधाम से सुकुमालिका के साथ सागरदत्त का विवाह सपन्न हो गया।
गृह जामाता सागर ने पाणिग्रहण के समय सुकुमालिका का हाथ अपने दाहिने कर में लिया तो उसका स्पर्श अगार के समान प्रतीत हुश्रा। किन्तु वह उस समय इस विषय को अधिक सोचने की अवस्था में नहीं था, अत कुछ भी विचार नहीं किया । रात्रि के समय जब वह अपने शयन कक्ष में शयन के लिए गया। वहाँ सुकुमालिका के साथ शरीर स्पर्श हुआ तो वह अग्नि तेज के समान तीक्ष्ण प्रतीत हुई। खैर उस समय तो वह मौन साधे ही पड़ा रहा किन्तु जव सुकुमालिका को निद्रा
आ गई तो वहाँ से चुपचाप अपने घर भाग आया। सुकुमालिका की निद्रा भग हुई तो उसने देखा कि उसका पति वहाँ नहीं है । यह देख वह बड़ी चिन्तातुर हुई । इधर उधर खोजने लगी किन्तु कुछ भी पता न लगा । अन्त में हताश हो वह उच्च स्वर से रोने लगी। उसकी इस रुदन ध्वनि को सुनकर उसकी दास दासियों ने उसे यह कह कर ढ़ाढ़स बंधाया कि वह सागर को येन केन प्रकारेण खोज कर यहां ले आयेंगे। और माता ने समझाते हुए कहा । हे पुत्री । तू शोकाकुल मत हो। यह प्रात काल का मगलमय समय है, अतः तुझे दन्त धावनादि करके ईश उपासना में लीन होना चाहिए ।
अपने जामाता को ढूढता हुआ सागरदत सार्थवाह जिनदत्त के यहाँ पहुँचा और उसके रात्रि में लुप्त हो जाने का सारा वृतान्त कह सुनाया और उपालम्भ देने लगा कि कुलीन व्यक्तियों को इस प्रकार का विश्वासघात शोभा नहीं देता। किसी की कन्या के जीवन के साथ