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जैन महाभारत arrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
इन्हीं दिनों यहा जिनदत्त नामक एक सार्थवाह था। जिसके पास अपार धन राशि थी। जो अपनी भद्रा भार्या के साथ सुख से जीवन व्यतीत कर रहा था। उसके यहां सुकुमार तथा स्वरूपवान एक सागर पुत्र था । सुकुमारिका की भांति उसे भी जिनदत्त ने पुरुषोचित्त गुणों तथा कलाओं की शिक्षा दी थी।
एक बार सुकुमालिका स्नान मज्जन कर वस्त्राभूषणों से विभूषित होकर अपनी सखियों के साथ स्वर्णमय गेन्द से खेल रही थी कि उधर से जिनदत्त सार्थवाह आ निकला । अनायास ही उसकी दृष्टि सुकुमालिका पर पड़ी, उसके अपूर्व रूप को निहार कर वह अत्यन्त विस्मित हुआ। उसने तत्काल अपने साथ रहे कौटुम्बिक पुरुषों से पूछा यह किसकी पुत्री है, इसका क्या नाम है ? इस पर वे कहने लगे हे स्वामिन् । यह यह सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री सुकुमालिका है।
घर आकर जिनदत्त सार्थवाह अपने शयन कक्ष मे सुकुमारिका के बारे में कुछ सोचता रहा । अन्त में उसने वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो कौटुम्बिक पुरुषों को साथ ले सागरदत्त के यहॉ जाने का निश्चय किया।
सागरदत्त अपने वाह्योपस्थान में बैठा अनेकों मनुष्यों से वार्तालाप कर रहा था । जिनदत्त को आया देख उसने बहुमान के साथ सत्कार कर आसन दिया । और पूछने लगा- “कहिये आज आपका यहाँ कैसे आना हुआ ? आपका यहां आना कुछ रहस्यमय प्रतीत होता है ।" सागरदत्त की बात को सुनकर जिनदत ने कहना प्रारम्भ किया श्रेष्ठिवर ! मैं तुम्हारी रति समान पुत्री सुकुमालिका को अपने पुत्र सागर के लिये याचना करने आया हूँ यदि तुम उचित समझते हो और योग्य श्लाघनीय व समान सयोग चाहते हो तो अवश्य ही मेरे पुत्र के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दो।
सागरदत्त ने कहा-ष्ठिवर । बात तो आपकी ठीक है किन्तु यह सुकुमालिका हमारी इकलौती संतान है जो हमें अत्यन्त इष्ट, कान्त एवं प्रिय है । इसके नामोच्चारण से ही हमें बहुत संतोष मिलता है और फिर देखने की तो बात ही क्या है अतः हम इसे अपने से एक क्षण भी विलग नहीं करना चाहते । हाँ यदि आपका पुत्र हमारा गृह जामाता बन कर रहे तो में अपनी