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________________ द्रौपदी स्वयवर ५७६ - - - गया है। चम्पापुरी के धनाढय परिवार की सर्वाग सुन्दर महिला आज साक्षात् राक्षसी की भाँति दिखाई दे रही हैं । सारा जन समुदाय जिससे घृणा करता है । अन्त में उसके शरीर में कुष्ठ श्वास आदि सोलह महा रोग उत्पन्न हो गये। किन्तु कोई उपचार करने वाला नहीं मिला । यह सब कुछ स्वोपार्जित कर्म फल ही था। मनुष्य कम करता हुआ विचार नहीं किया करता। यदि करले तो उसे इस प्रकार की यातनाए न भोगनी पड़े । क्योंकि "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृत कर्म शुभाशुभम्" के अनुसार फल भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार निराश्रितों की भॉति दुखमय जीवन के लिये रोती चिल्लाती व अनुताप करती हुई, काल धर्म को प्राप्त हो गई। शास्त्रकारों का कथन है कि मृत्यु के पश्चात् नागश्री मघा नामक छठे नके में नैर्थिक रूप में उत्पन्न हुई। वहां की दीर्घ आयु को बिता कर मत्स्य रूप में समुद्र में उत्पन्न हुई । वहां से शस्त्र द्वारा मारी जाकर सातवीं नक में जा पहुँची। पुनःमत्स्य योनि में जन्म हुआ । और फिर भी मारी जाकर सप्तम नर्क में ही गई । इस प्रकार मत्स्य, परिसर्प आदि योनियों में जन्म-मरण करती सातों नर्को में दो दो बार तथा एकद्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय और पचेन्द्रिय जाति में अनेक बार भव भ्रमण किया । इस प्रकार भवारण्य में भ्रमण करती हुई पुण्योदय से इसी चम्पानगरी में सागरदत सार्थवाही के यहां भद्रा पत्नि की कुक्षि से बालिका रूप में जन्म लिया । वह अत्यन्त सुकुमार शरीर व हस्ति के कोमल तालु भाग के समान लाल वणे वाली थी। अतः माता पिता ने उसका सुकुमालिका नाम दिया। पांच धात्रिओं द्वारा लालित पालित होती हुई यह कुमारी द्वितिया के चन्द्र कल को भॉति बढ़ने लगी । यथा समय उसे नारियोचित्त शिक्षा दीक्षा दी गई । धीरे २ वयस्क हो जाने पर उसके अगों से योवन फूट ने लगा। उसके लक्षणों से यह लक्षित होता था कि वह वाल्य भाव से मुक्त हो चुकी है। x'सार्थवाह' से अभिप्राय यहा सार्थ अर्थात् यूथपतिसे है। क्योकि प्राचीन समय में द्रध्योपार्जन के लिए पैदल अथवा जलयान द्वारा एक सार्थ (काफला) किसी के नेतृत्व में व्यापारायं जाया करता था। प्रत वह नेता 'सार्थवाह' कहलाता है। मागे चलकर उनके वश में सार्थवाह पद रूप भी हो गया।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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