________________
५५२
जैन महाभारत
mmmmm
इस प्रकार खिलवाड़ करना अच्छा नहीं, आप उसे शीघ्र ही मेरे यहाँ पहुंचाने की व्यवस्था कीजिये।' सार्थवाह की बात को सुन कर जिनदत्त की लज्जा के मारे ऑखे नीची हो गई । और मन ही मन दुखित होते हुये पुत्र को पास बुलाकर इस प्रकार कहने लगा हे पुत्र ! रात्रि मे तू सागरदत्त की बिना प्राज्ञा ही क्यों चला आया। इसमें तेरा मेरा तथा कुल का अपमान है । मैं अनेकों सार्थवाहो के बीच तुझे सागरदत्त का गृह जामाता बनाने का वचन दिया था अतः तुझे इसी समय वहॉ.लौट जाना चाहिए, इसी मे शोभा है। पुत्र ! प्रामाणिकता के नष्ट हो जाने पर धन, यौवन, बुद्धि, बल आदि सब साधन तुच्छ प्रतीत होते हैं । अतः मनुष्य का जीवन प्रामाणिक होना चाहिये।"
पिता की बात को सुनकर सागर ने कहना आरम्भ किया-पिता जी, मैं पर्वत से गिर कर वृक्ष से कूद कर या अग्नि से जलकर प्राण दे सकता हूँ। चाहो तो मरुस्थल जैसे शुष्क प्रदेश मे रह जीवन व्यतीत कर लूंगा, पानी मे डूब कर मर जाऊँ, विष भक्षण व अन्य किसी साधन से आत्म हत्या कर लू गा, आप गीध जैसे मास लोलुप पक्षियों से मेरा शरीर नोचवा दो,या देश निर्वासित करवादो। यह सब प्रायश्चित मुझे सहर्ष स्वीकार होंगे किन्तु उस सागरदत्त के घर जाना कदापि स्वीकार न होगा।"
अपने जामाता के ऐसे वचन सुनकर सागरदत्त को मर्मान्तक पीड़ा पहुची । निराश हो वहाँ से घर लौट आया, और अपनी पुत्री को उसके वियोग के लिए सांत्वना दे विश्वास दिलाया कि अब वह उसे ऐसे व्यक्ति के ब्याहेगा जो उसे अपनी सहधर्मिणी स्वीकार कर रखेगा।
सुकुमालिका के स्पर्श की बात प्रसिद्ध हो गई थी। अतःकोई उसको स्वीकार करने को तैयार न हुआ । इससे सागरदत्त सदा चिन्तित रहता।
एक बार गवाक्ष में बैठे हुये उसकी दृष्टि मार्ग में जाते हुए दरिद्र युवक पर पड़ी जो शरीर मे पुष्ट तथा गौर वर्ण वाला था। वस्त्र फटे हुये थे, मुंह पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। सागरदत्त ने उसे अपने पास बुलाया और स्नान मंजन आदि करवा कर पहिनने के लिये उत्तम वस्त्र तथा आभूषण दिये और भोजनोपरान्त वह उसे कहने लगा हे युवक | परम सुन्दरी सुकुमालिका पुत्री को मै तुझे देता हूँ इसे तुम