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द्रोण का बदला
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प्रशसा किया करते थे, फिर आज स्वय ही अच्छा न होगा कि द्रपद के पास क्षमा का सन्देश भेज दिया
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द्रोण बोले - " मैंने जो शिक्षा दी वह तुम्हारा जीवन सफल बनाने के लिए दी है । मैं तुम्हारे स्वभाव की प्रशंसा करता हूँ और तुम्हें धर्मराज मानता हूँ, पर स्वभाव तो प्रत्येक व्यक्ति का भिन्न भिन्न होता है । सभी तो धर्मराज नहीं हैं। तुम मुझे अपनी प्रतिज्ञा से हट जाने की प्रेरणा मत दो। मैं अपने अपमान को नहीं भूल सकता ।"
युधिष्ठिर पूछ बैठे - " पर क्या यह उचित है गुरुजी ?"
“ उचित और अनुचित का प्रश्न नहीं है । प्रश्न यह है कि मैं अपने प्रण को पूरा करना चाहता हू और मैंने गुरु दक्षिणा के रूप में द्रुपद को बाँध कर लाना माँगा है। मैं जब तक अपने वचन को पूर्ण नहीं कर लूंगा, मैं व्याकुल रहूंगा। मुझे शान्ति मिल सकती है, तभी जब मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हो जाय । तुम चाहते हो तो गुरु दक्षिणा रूप में उसे पूर्ण कर दो नहीं चाहते, तो न सही । मैं समझू गा कि मैंने जो इतने दिनों से तुम से आशाएं लगा रक्खी थीं वे व्यर्थ थीं, मैं फिर दूसरा उपाय सोचू गा ।' द्रोणचार्य ने कहा ।
"आप मेरी बात को गलत न समझिये । युधिष्ठिर बोले- मैं आप की आज्ञा का पालन करने को सदैव तैयार हूं। हम क्षत्रिय है, गुरु कुछ याचना करे और हम उसे पूर्ण न करें यह तो कभी हो ही नहीं सकता ।"
"तो फिर क्या मैं समझ कि तुम द्रुपद को बांध लाने को तैयार हो ?" द्रोणाचार्य ने पूछा और सभी ने कहा- हां हम आपके मन की शान्ति के लिए गुरु दक्षिणा से उऋण होने के लिए आपकी प्रतिज्ञा पूर्ण करेंगे । किन्तु सिद्धान्त क्रोध पर विजय पाने को ही कहता है ।"
खैर, कौरव तथा पाण्डव द्रपद को बाधने के लिए अपने अस्त्र शस्त्र सम्भाल कर चल पड़े । दुर्योधन सोचने लगा यह अवसर बड़ा सुन्दर है, द्रोणाचार्य को अपने साथ लेने का । कर्ण हमारी ओर है ही यदि द्रोणाचार्य भी हमारे साथ हो जाय तो हमारे पास अपार शक्ति हो सकती है और इस इच्छा की पूर्ति का यही शुभ अवसर है । यदि हम