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जैन महाभारत
सुयोग्य हो गए हो। तुम सभी बलिष्ठ और विद्यवान हो । परीक्षा देकर तुमने सिद्ध कर दिया है कि तुम्हारी योग्यता प्रशसनीय है। अब तुम्हारा अपने गुरु के प्रति जो कर्तव्य है आशा है तुम सभी उसे निभाने के लिए तैयार होंगे।" ___ सभी की जिज्ञासा पूर्ण दृष्टि गुरुदेव के मुखमंडल पर जम गई। द्रोणाचार्य ने कहा--"जब तक तुम लोग गुरु दक्षिणा नहीं देते, तब तक एक ऋण तुम्हारे सिर पर रहेगा। मैं चाहता हूँ कि तुम सब भारमुक्त हो जाओ ।"
"हम सभी गुरुदेव को गुरुदक्षिणा देने को तत्पर है। श्राप जो चाहें वही आपके चरणों में प्रस्तुत कर दिया जाय ।” युधिष्ठिर ने सभी शिष्यो की ओर से कहा । सभी ने उसका अनुमोदन किया।
द्रोणाचार्य बोले---"मैं जानता हूँ कि तुम सभी गुरु दक्षिणा देने तैयार हो। ऐसी ही मुझे आशा भी थी। मुझे तुम्हारा सोना चॉदी आदि बहुमूल्य उपहार नहीं चाहिए। तुम्हें ज्ञात है कि मैने एक प्रतिज्ञा कर रक्खी है । उसे पूर्ण करने के लिए मै उत्सुक हूँ। मैं चाहता हूं कि गुरु दक्षिणा रूप में तुम मुझे राजा द्र पद को बांधकर लाकर दो। वही मेरी दक्षिणा होगी। उसने कहा था कि राजा का मित्र राजा ही हो सकता है रंक नहीं, मैने प्रतिज्ञा की थी कि मैं तुझे अपने शिष्यों से बंधवा कर मंगाऊंगा और तू स्वयं कहेगा कि मैं तुम्हारा मित्र हूँ । तुम सब योग्य हो, बलिष्ठ भी, अतः जाओ उसे बांध लाओ।"
द्रोणाचार्य की बात सुनकर कुछ देरि के लिए सब चुप हो गये। द्रोणाचार्य ने सभी के मनोभाव पढ़ने की चेष्टा की, तभी युधिष्ठिर खड़े हो गये। बोले -"हम आपके शिष्य हैं, आपसे शिक्षा पाते समय जिस तरह हमारे लिए आदरणीय तथा माननीय थे आज भी हैं । आपकी
आज्ञाएं जैसे पहले शिरोधार्य थी आज भी हैं। परन्तु आप मुझे यह प्रश्न उठाने की धृष्टता के लिए क्षमा करें कि आपने तो कहा था क्रोध को जीतने में ही आनन्द मिलता है, पर आज आप ही अपने क्रोध वश किये गए निश्चय को हमसे पूर्ण कराने की मांग कर रहे है । उस दिन आप निर्धनता के बोझ से दुखी थे, पर आज आप हमारे गुरु है, निर्धनता का प्रश्न ही नहीं उठता। क्रोध सह लेने के कारण आप मेरी