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जैन महाभारत
इकार करने पर पाप लुप्त नहीं हो जाता। अपराध को झूठ कह कर उससे मुक्ति नहीं मिल सकती। तुम्हारे द्वारा इसे झूठ बता देने से प्रजा में शांति नहीं हो सकती। तुम इसे सफेद झूठ कह भी दो, पर इससे यादव वंश का कलंक दूर नहीं हो जाता।"
पर मै यह कैसे मान लूकि शाम्ब कुमार इतना जघन्य अपराध कर सकता है ?"
"तुम मानो या न मानो पर सत्य यही है।" "आपको भ्रम हो गया है । किसने कहा है आप से ?" "प्रजा ने ।"
"लोग झूठ भी तो कह सकते है। नृप को कच्चे कानों का नहीं होना चाहिए। शत्रु झूठी बातें भी तो उड़ा सकते हैं । नृप न्यायधीश होता है। उसे तुरन्त किसी की बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
आखिर इस बात का कोई प्रमाण भी है ? या आप लोगो की शिकायत सुनकर ही उत्तेजित हो गए। मुझे तो यह बात बिल्कुल नीति विरूद्ध लगती है।" जाम्बवती ने अपने पुत्र को निरपराधी सिद्ध करने की चेष्टा करते हुए कहा।
श्रीकृष्ण ने गम्भीरता पूर्वक उत्तर दिया-"रानी। पंच परमेश्वर की लोकोक्ति सुनी है या नहीं ? मैं जनता को जनार्दन मानता हूँ। उनकी आवाज ही सत्य है । एक दो व्यक्ति भले ही झूठ कह दें, पर सारी जनता कदापि झूठ नहीं बोल सकती। मुझे विश्वास है कि उन्होंने सत्य ही कहा है।
मैं यह नहीं मानती। आपके पास हजारों व्यक्ति आकर कुछ कह दे तो वह ही लत्य नहीं हो जाता।"
"तो फिर तुम कैसे मानोगी ?" "कोई प्रमाण हो तभी मैं स्वीकार कर सकती हूँ।" "तो फिर तुम ही परीक्षा करके देख लो।" ।
श्रीकृष्ण की बात कटु थी, पर उनका मत उसने स्वीकार कर लिया । दोनो मे बात तय हो गई। श्रीकृष्ण ने उसे एक षोडशी ग्वालिन
के रूप में परिवर्तित कर दिया। और स्वयं ने एक वृद्ध ग्वाले का रूप , धारण किया। जाम्बवती सिर पर मक्खन की मटकी लेकर चली । और साथ में हो गए श्रीकृष्ण, वृद्ध ग्वाले के वेष मे ।