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प्रद्युम्न कुमार
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रूप ने मुझे विषयानुरागिनी बना दिया है । मैं तुम्हें अपनी शैया पर
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देखने के लिए आतुर हू }
कुमार विद्युतगति से रानी से अलग हो गया, जैसे किसी नागिन ने क मार दिया हो। उसकी आंखों में असीम आश्चर्य के भाव हिलोर ले रहे थे । उसने कहा - " मां तुम्हारा मस्तिष्क फिर गया है, तुम पागल हो गई हो। अपने पुत्र से ऐसी बातें करते तुम्हें लज्जा अनुभव नहीं होती ?”
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"कुमार | मैं तुम्हारी मा नहीं हूँ ।" रानी बोली कुमार को और भी आश्चर्य हुआ - ' क्या कह रही हो तुम
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" ठीक कह रही हॅू। मैंने तुम्हे पहाड़ पर से उठाया था । उस समय तुम्हारी गुली में नामांकित एक मुद्रिका थी, उसमें तेरा, तेरी जन्मदातृ माता रुक्मणि और पिता श्रीकृष्ण का नाम अकित था । अत मैं माता नहीं हूँ । रानी का उत्तर सुनकर कुमार के मस्तिष्क को एक झटका सा लगा, पर वह उस समय इस विषय पर सोचने की दशा में नहीं था | उसने कहा - "जो भी हो, तुमने ही मेरा मातसम पालनपोषण किया है । इसलिए मेरे लिए तो तुम्हीं मॉ हो, चलो ऐसा न सही धात्री समान ही सही, किन्तु वह पद भी मातृपद से कम नहीं होता अतः फिर तुम्हें मुझसे ऐसी बातें करते हुए लज्जा नहीं आती ?"
"प्रद्युम्न कुमार | अपने लगाए हुए तरु के फल कौन नहीं खाता, क्या अपने द्वारा निकाली नहर के जल से पिपासा शांत करना अनुचित है | क्या अपने हाथों से पाले हुए अश्व पर सवारी करना उचित नहीं है । क्या किसी को उस पुरुष की सुगंध से आनन्दित होने में लज्जा आती है, जो उस पौधे पर खिला हो जिसे उसी ने सींचा था । क्या अपनी कमाई के द्वारा ऐश्वर्य लूटना लज्जाजनक है ? यदि यह सब उचित है तो फिर तुम्हें अपना हृदय सम्राट् बनाना, मेरे लिए क्यों अनुचित है।" रानी ने उत्तेजित होकर प्रश्न किया ।
इन उक्तियों के उत्तर में प्रद्युम्न कुम्पर बोला - "तो फिर तुम्हारे विचार से अपनी कन्या को पिता सहधर्मिणी बना सकता है । मा, ऐसी पापयुक्त बातें कहकर मुझे इस बात पर विवश मत करो कि मेरी जिहा से आपके लिए कुछ कठोर शब्द निकल पड़े ।"