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जैन महाभारत
"आज तुम्हारी हर बात मुझे स्वीकार है, वासना के मद मे अधी हुई रानी बोली--तुम्हारे क्रोध को मैं अपने साजन के रोष की भांति पी जाऊंगी।"
"मां । आज तुम ऐसी बाते क्यों कर रही हो ” परेशान होकर प्रद्युम्न कुमार ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा।
"जीवन का आनन्द, लूटने के लिए।" "क्या पाप ही मे जीवन का आनन्द है ?" "वासना तृप्ति कोई पाप नहीं है ?" "तो फिर तिर्यच और मनुष्य में अन्तर ही क्या हुआ ?"
"वादविवाद की आवश्यकता नहीं, रानी अन्त में बोली-तुमने कहा था कि मैं तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए प्रत्येक सेवा करने को तत्पर हूँ। तुम मेरे रोग के निदान के लिए प्राण तक देने को कहते थे । पर मैं तुम्हारे प्राण नहीं चाहती। बस तुम्हारे प्रेम की भूखी हूँ। मुझे एक बार पत्नीवत् प्यार करो । यही मेरे आज तक के प्रेम का मुल्य है।"
"मां ! तुम पागल हो गई हो। मुझे ऐसा लगता है कि आज शशि ने अग्नि वर्षा प्रारम्भ कर दी है। सूर्य शरद किरणें बिखेरने लगा है । गगा उल्टी बहने लगी है।" कुमार का मन क्षतविक्षत हो गया था, उसने मुझला कर कहा । ___"जब तुम आज तक के पालन पोषण के ऋण के भार से मुक्त नहीं हो सकते, जब तुम मेरे लिए एक तनिक सा कष्ट नहीं उठा सकते तो बढ़ बढ़कर डींग क्यों हॉक रहे थे ?" रानीने कुमार को उत्तेजित कर अपनी कामवासना की अग्नि का चारा बनने की प्रेरणा देते हुए कहा।
परन्तु कुमार के शरीर मे जैसे सहस्रो विच्छुओ ने एक साथ इंक मार दिए हों, वह तिलमिला उठा, उसने रोष में कहा-'मा ! सूर्य पश्चिम दिशा में उदित नहीं हो सकता । मेरु अपना स्थान नहीं बदल सकता । शशि अपना स्वभाव नहीं बदल सकता, यह सिर तुम्हारे चरणों में झुका है । तुम्हारे चरणों में ही झुकेगा, मैंने तुम्हे माता कहा है, पुत्रवन ही व्यवहार कर सकता हूं।
रानी ने हाथ जोड लिए और विनीतभाव से बोली