SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ wwwwwwwwwwwwrrrrrrr यदुवंश का उद्भव तथा विकास rrrrrrrrrrrrrrrrrry मगध जनपद के पलाशपुर नामक ग्राम में स्कन्दिल नामक ब्राह्मण दम्पति के घर में नन्दीपेण नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। यह लडका विल्कुल काला और कुरुप था, उसके बडे-बड़े टेढ़े-मेढे दॉत, जो होठो से भी बाहर निकले रहते थे, मोटे-मोटे होठ, छोटी-छोटी पोली-पीलीसी अॉख चपटा मा सिर और बेडोल अंग-प्रत्यगो को देखकर कुछ डरमा लगने लगता इस कुरूपता की प्रतिमा को कोई अपने पास भी नहीं फटकने देता । एक तो जन्मजात महादरिद्र और दूसरी इस भयकर कुरुपता ने मिलकर 'एक तो करेला और फिर नीम चढ़ा' कहावत को चरिताये कर दिया था। ___ 'देवा देवो दुबल घातक' के 'प्रनुसार उसके दुख और कष्टों को बढाने के लिए कालने उसके माँ बापो को भी बचपन मे हो उससे छीन लिया । माता-पिता के परलाक सिधार जाने बाद नन्दोपेण अनाथ होकर इधर उधर भटकने लगा। वह दर दर की ठोकर खाता मारा मारा फिरता जहाँ भी जाता उसे तिरस्कार प्रोर ताडना के सिवा कहीं कुछ भी न मिलता, भिक्षा माँगने जाता तो भीख के स्थान पर दो चार गालियाँ ही उसको नसीय होती। वह रात-दिन मन मारे गम खाये पड़ा रहता । ससार में कहीं से भी तो उसे सहानुभूति स्नेह या प्यार का लवलेश भी मिलने की कोई आशा न थी। बारह बरस बाद तो घूरे (रोडियों) के भाग भी जागते हैं अतः नन्दीषेण के दिन भी फिरते दिखाई देने लगे। एक बार अचानक उसका मामा पलासपुर की और 'पा निकला । अपने भानजे की ऐसी दुर्दशा देख उसके नेत्रों में फरूणाश्रु छलछला आये । बहिन के प्रति हार्दिक स्नेह उमड पडा। पीर यह इतने दिनों तक इस अभागे विपत्तियों के मारे अपने भान्ले फी सुध न लेने के कारण मन ही मन प्रापका धिक्कारने लग पड़ा। पुण्य की कृपा उसके घर सेत, कुए, गाय, भैंस आदि सभी कुछ थे। मामाने दया कर नंदीपेण को अपने गॉच ले गया उसने उसे खेती-घाडी और पशु चराने के काम में लगा दिया। नन्दीषण कुरुप भले ही हो, पर 'प्रालसी नहीं था। उसने खेती-बाडी के काम-काज में रात-दिन एक कर दिया। नन्दीपेण की इस कड़ी मेहनत के पलरूप खेती की उपज देखते ही देखते दुगनी बढ़ गई इस पर प्रसन्न
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy