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जैन
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महाभारत
हो मामाने उसका कहीं से विवाह करने का निश्चय किया । पर ऐसे व्यक्ति को कोई भी तो अपनी कन्या देने को तैयार नहीं होता । अन्त मे मामा ने अपनी पत्नि से परामर्श करने के पश्चात् अपनी सात लड़कियों मे से सबसे बड़ी का सम्बन्ध नंदीषेण के साथ कर देने का निश्चय कर लिया । किन्तु जब उस लड़की को पता लगा तो उसने स्पष्ट कह दिया कि उस काले कुरूप और बदसूरत के साथ विवाह कराने से तो मरजाना अच्छा समझती हूँ । ये शब्द जब नन्दीषेण के कानो मे पड़े तो उसका हृदय मारे दुख और ग्लानि के विदीर्ण हो गया । पर मामा ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा कोई कोई बात नहीं, बड़ी लड़की नहीं तो मै उससे छोटी का तुम्हारे साथ व्याह कर दूंगा । पर उस लड़की ने भी स्पष्ट शब्दो में इस सम्बन्ध को अस्वीकार करते हुए कहा कि उसके साथ विवाह करने से तो अच्छा है मुझे साक्षात् यमराज के हाथो में सौप दो । नन्दीषेण की शक्ल-सूरत तो यमराज से भी अधिक डरावनी है ।
इस प्रकार नदीषेण के मामा ने अपनी सातो लड़कियो के साथ नन्दीषेण के सम्बन्ध का संकल्प किया । पर सातों ने ही जब अस्वीकार कर दिया तो नन्दीषेण के हृदय में ग्लानि और दुख के स्थान पर सहसा वैराग्य भावनाएं जाग उठीं और वह सोचने लगा कि ऐसे तिरस्कृत और अपमानित जीवन से क्या लाभ ? संसार मे मुझे कोई भी तो प्यार नहीं करता, किसी की भी आत्मा के साथ मेरी आत्मीयता नहीं, इस जीवन से तो मर जाना ही अच्छा है सच कहा है किसी ने
"नहीं वह जिन्दगी जिसको जहाँ नफरत से ठुकराये । यह सोच कर वह घर से निकल पड़ा और चलते-चलते रत्नपुर नामक नगर के उपवन मे आ पहुचा ।
रत्नपुर के उपवन में अनेक सुन्दरियों को अपने प्रिय पुरुषो के साथ आनन्द केली करते हुए देखा और सोचने लगा कि एक ओर तो ये सौभाग्यशाली नर-नारी हैं, और दूसरी ओर मै मन्द भाग्य जिसे संसार मे कोई देखना भी नहीं चाहता । संसार का यह अपमान और अधिक नहीं सहा जा सकता । बस ! चलू ं और चलकर कहीं एकान्त आत्म-हत्या कर लूं । यह सोचता- सोचता वह एक निबिड़
में