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________________ २० जैन महाभारत करती थीं । कुन्ती व माद्री का विवाह कुरुवशी महाराज पॉडु से हुआ, जिससे पाण्डव वश चला, यह प्रसग आगे वर्णित होगा । इधर महाराज सुवीर के पुत्र राजा भोजकवृष्णि की स्त्री पद्मावती थी । उससे १. उग्रसेन, २. महासेन, और देवसेन । ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। ____एक समय सुप्रतिष्ठ अणगार मुनि ग्रामानुग्राम विचरते हुए शौरीपुर नगर के पास श्रीवन नामक उद्यान मे आ विराजे। मुनिराज के शुभागमन की सूचना पाकर महाराज अन्धकवृष्णि बडी श्रद्धामक्ति के साथ सपरिवार उनके दर्शनार्थ गये। सुप्रतिष्ट मुनि ने राजा को अनेक प्रकार से धर्म-रहस्यो का बोध कराया। अनेक प्रकार की शकाओं के सन्तोषजनक समाधान पाकर राजा परम प्रमुदित हुआ। क्योकि मुनिराज अवधिज्ञानी थे, इसलिए महाराजा का अपने और अपने परिवार के भूत, भविष्य और वर्तमान के प्रति जिज्ञासा भाव जागृत हो उठा। और मुनि से हाथ जोड़कर निवेदन करने लगा कि हे मुनिराज | मैने और मेरी संतान ने पूर्व जन्म मे, वे कौनसे कर्म किये है, जिनके कारण हम इस भव मे ये शुभाशुभ फल भोग रहे है। इस पर कृपालु मुनिराज ने संक्षेप में महाराज अन्धकवृष्णि तथा उसके समुद्र विजय आदि नौ पुत्रों के पूर्व भव का चित्र अंकित कर दिखाया। तब महाराज ने फिर हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि "हम सब तो साधारण प्राणी है, न हमारे इस जीवन मे कोई उल्लेखनीय विशेषता है, और न पिछले भवो में हो कोई खास बात थो। पर मेरा यह सबसे छोटा पुत्र वसुदेव तो कोई विशिष्ट प्राणी लक्षित होता है, चराचर मात्र इसके प्रति सदा आकृष्ट रहता है, जिधर निकल जाता है उधर के ही नर-नारियों की दृष्टि बरबस इसकी ओर खिच जाती है। समस्त विश्व १ की सुन्दरियो का तो यह सर्वस्व ही है, रमणियो को इस प्रकार अनायास मन्त्र मुग्ध बना देने की इसकी अपूर्व क्षमता को देखकर सारा ससार आश्चर्य चकित है । आखिर इसने पूर्व भव मे ऐसे कौन से कर्मो का बन्धन किया है, जिनके उदय के फलस्वरूप वसुदेव को यह अद्भुत विशेषता प्राप्त हुई है। कृपा कर इसके पूर्व भव के सम्बन्ध में कुछ बताकर इस जन को कृतार्थ कीजिए"। x वसुदेव का पूर्व भव x __राजा के ऐसे विनीत वचन सुनकर दयासागर सुप्रतिष्ठ मुनि वसुदेव के पूर्व भव का वर्णन करते हुए कहने लगे कि Pap s
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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