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________________ _दूसरा परिच्छेद यदुवंश का उद्भव तथा विकास भ० मुनिसुव्रत के पश्चात् इक्कीसवे तीर्थकर भगवान् नेमीनाय का 'तीय पॉच लाख वर्ण पर्यन्त का हुआ । उस समय मे इसी हरिवश मं राजा यदु हुए। ये हरि वश रूपी उदयाचल में सूर्य के समान ये और उन्हीं से यादव वश की उत्पत्ति हुई । राजा यदु की आयु पद्रहहजार वर्ण यो । राजा यदु के नरपति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ और उसे राज्य मोप वे स्वर्गलोक गए । राजा नरपति के शूर और सुवीर दो पुत्र हुए। वे पुन वास्तव में शूर वीर थे राजा नरपति ने इन दोनों को राज्य दे दिया 'पौर श्राप स्वर्ग सिधार गये। कृता राजा शूर ने अपने छोटे भाई सुवीर को मथुरा का अधिपति चनाया और कुशधदेशमे परम रमणीय एक शौर्यपुर नाम का नगर वसाया। राजा शूरक के शूर प्रवक वृष्णि आदि पुत्र हुए और मथुरा के स्वामी राजा सुवीर के अतिशय वीर भोजक हो गया। राजा शूर ने अपने बड़े पुत्र अंधकवृष्णि का और सुवीर ने ज्येष्ठपुत्र भोजकवृष्णि को राज्य दे दिया और वे दानो यथासमय स्वर्गलोक के अधिफारी हुए। राजा 'प्रधस्वप्णि की पत्नीका नाम सुभद्राथा और उससे समुद्रविजय अक्षो , स्तिगित. नागर, हिमवान, अचल, धरना, पूरण, अभिचन्द्र 'पार वसुदेव ये उन पुत्र उत्पन्न हुए।) ये समस्त पुत्र देवों के समान प्रभावी , मोर स्वर्गो ने च्चवकर सुभद्रा के गर्भ में अवतीर्ण हुए थे। मरगुण-सपन्न ये दशोपुत्र लोक में दशाह नाम से पुकारे जाते थे। इनके पन्ती पोर माद्री टो कन्याएँ थीं। ये दोनों कन्याए वास्तविक स्त्रियों के गुणा ने मूषित ची पोर 'पने गुणों से लक्ष्मी और सरम्यती की तुलना
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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