________________
४८०
जैन महाभारत
गा
।
वे कहने लगे-“रानी । यह बालक तो बड़ा पुण्यवान है, देखो कैसी विचित्र बात है, गिरि के शिखर पर अकेला ही खेल रहा है।
"नाथ है तो आश्चर्य की ही बात ।" रानी ने कहा।
"किसी दुष्ट ने इसे मारने का यत्न किया, पर देखो अपने पुण्य के प्रताप से यह बच गया ।" राजा ने कहा।
"बड़े ही शुभ कर्म किए होंगे इस ने अपने पूर्व जन्म में ।" रानी कहने लगी।
"यह तो यहां अनाथ है। इसे यहां छोड़ना ठीक नहीं है । अतः अपने साथ ले चलना चाहिए।" राजा ने प्रस्ताव किया। इस ने पूर्वजन्म में बड़ा पुण्य कमाया है, इस भाग्यशाली को मैं तुम्हे सन्तान रूप में देता हूँ।"
रानी कुछ सोचने लगी। फिर बोली-"परन्तु आप के दरबार में तो कई कुमार हैं। उन के सामने इस बेचारे को कौन पूछेगा"
राजा भी चिन्तामग्न हो गए और अन्त में वे बोले-"तो मैं इसे ही युवराज पद दू गा।"
राजा ने वहीं मुख तवोल से उस के मस्तक पर तिलक लगा कर उसे युवराज बना दिया। रानी ने हर्षित हो कर उसे गोद में ले लियो। तभी तो कहा है कि शत्रु का कोप किसी का क्या बिगाड़ सकता है जब कि सज्जन उस के पक्ष में हों । जब कि उस के पुण्यों से न्यायवान उसकी रक्षा के लिए तत्पर हों।
राजा रानी दोनों तुरन्त महल में आये और रानी एकांत कमरे में चली गई । राजा ने महल में घोषणा कर दी कि गुप्त-गर्मिणी रानी कनकमाला ने एक सुन्दर पुत्र रत्न को जन्म दिया है। क्षण भर में ही यह बात सारे महल में घूम गई और महल से निकल कर नगर में . पहुँच गई । कुछ ही देर में सारे नगर में हर्ष मनाया जाने लगा, नारियाँ महल में आकर मगलाचार गाने लगीं। महल मे ढोलक के मधुर स्वर, तथा नुपूरों की ध्वनि गूज उठी। सारा नगर सजवाया गया। नप ने अन्न, अभय, विद्या तथा औषधि आदि का दान देना आरम्भ कर दिया । बड़ी धूमधाम से महोत्सव मनाया गया। देश के सर्वोत्तम कलाकारों को निमन्त्रित कराकर कितनी ही सभायें सजाई गई। कलाकारों में मुक्तहस्त से पुरस्कार दिए गए। कितने ही वन्दियों को मुक्त