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प्रद्युम्न कुमार
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बहुत सोचा कि बिना पूर्ण आयु हुए यह नहीं मरेगा, अतः मैं केवल इसके जीवन को दुर्लभ ही कर सकता है। वह उसे वैतादय पर्वत पर ले गया और वहाँ एक टक नामक विशाल शिला पर रख दिया। और हर्षित होकर बोला-"ले अपने किए का फल भोग।" इतना कहकर वह अपने रास्ते चला गया।
परन्तु पुण्य के प्रभाव से शिशु को तनिक सा भी कष्ट न हुआ। तभी तो कहा है कि आकाश में जितने तारे हैं, यदि किसी के उतने भो वैरी हों, परन्तु उसके पुण्य इतने बलवान सखा होते हैं कि कोई भी उसका बाल वांका नहीं कर सकता । संसार में कोई भी किसी के साथ न बुरा कर सकता है न भला, न किसी को सुख दे सकता है और न दुख ही यह तो मनुष्य के कर्म हैं जो उसे सुख अथवा दुख देते हैं। बाकी निमित्त कारण हैं । पूर्व कर्मो कर्मानुसार ही मनुष्य का जीवन चलता है। देखिये कस को तो जन्म लेते ही नदी में बहा दिया गया था, पर वह जीवित रहा और अन्त में मथुराधीश बना। भीम की हत्या करने के लिए बालपन में ही दुर्योधन ने कितने षड्यन्त्र किए पर दुर्योधन उनका बाल भी बांका न कर सका। इसी प्रकार रुक्मणि का पुत्र पहाड़ पर अकेला ही जीवित रहा।
वैताढ्य पर्वत के मेघ कूट पर उन दिनों न्यायवत, गुणवान तथा दयावान कालसवर विद्याधर राजा रहते थे जिन की पटरानो कनकमाला अति सुन्दर चन्द्रमुखी थी। नृप और रानी वायुयान में बठे कहीं जा रहे थे, उनका वायुयान उधर से हो कर जा रहा था जहा बालक विशाल शिला पर रखा था। वे प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते जा रहे थे अनायास ही उनकी दृष्टि उस शिला पर पडी। अपनी रानी को सम्बोधित करके बोले--"देखो प्रिये, क्या अनहोनी बात है, एक बालक शिला पर रखा है। ___"हा है तो ऐसा ही, रानी ने देख कर कहा-पर सम्भव है वहां निकट ही कोई हो।
कौन हो सकता है वहां तो कोई नहीं। "चल कर देख लीजिए।"
रानी का प्रस्ताव उन्हें पसन्द आया और वायुयान रोक कर वे नीचे उतर आये । शिला के पास गए, तो देखा कि नवजात शिशु बालक है।