________________
कंस वध
समझना कि जीवयशा विधवा होकर शान्त बैठ जायेगी। मेरे हृदय में प्रतिशोध थी आग धधक रही है । मैं जानती हूँ कि समस्त यादवो ने मेरे पति के साथ विश्वासघात करके उनकी हत्या कराई है उन्होंने तुम्हारे साथ मिलकर मेरे सुहाग में आग लगवाई है। इन सब ने तुम्हारे साथ मिलकर षड़यन्त्र रचा है । पर मै यू ही शॉत नहीं हो जाऊगी, मैं तुम्हारा और इस कलमुहे बलराम का रक्त पी जाऊगी। मैं तुम दोनों को इसी तरह मरवाऊगी, तभी मेरे हृदय की सुलगती आग शान्त होगी।" __इसके पश्चात् उसने उग्रसेन की ओर दृष्टि डाली और आग्नेय नेत्रों से उसे घूरते हुए बोली-“बुड्ढे | अपने बेटे को मरवा कर तू उन्मत्त हो यहाँ बैठा है, तुझे लज्जा नहीं आई, अपने बेटे । हत्यारे के पास ठाठ से बेठते हुए । अरे निर्लज्ज तुझे तो चाहिए था कि इन सब
और कृष्ण दोनों की बोटी बीटी नोच डालता, पर तू क्यों ऐसा करने लगा है। तू आज तो फूल कर कुप्पा हो गया है, तुझे तो मथुरा नरेश होने की लालसा सता रही है । तूने ही मेरे पति की हत्या कराई है। पर याद रख तुझे भी चैन नहीं मिल सकता । मैं अपने पिता से तुझे यम लोक पहुँचवाऊगी।"
उग्रसेन से न सहा गया, वे क्रोध में जलने लगे । जीवयशा को ललकार कर कहा-अरी निर्लज्जा | कस वध से भी तेरी ऑखें नहीं खुली। फिर रक्तपात कराने का बहाना ढूढ रही है । क्या तूने मेरे कुल का ही नाश कराने की सोच ली है ? निकल यहां से । जो तुझे करना है कर गुजर, पर नारी समुदाय के मस्तक पर कलक न लगा। जरासध की नाक मत कटवा । यहां से चली जा। मुझे क्रोव मत दिला मुझे डर है कि सभा बीच ही कोई अनुचित काण्ड न हो पडे । तुझे जा कुछ करना है कर, पर इस प्रकार इतने पुरुषों मे आकर लज्जा को ताक पर रख कर जो तू भोक रही है, इससे मेरे कुल पर कालिख लग रही है, जरासध तेरी बेहयाई को सहन भले ही कर ले, पर मेरे लिए यह असह्य है।"
जीवयशा न मानी, वह जोर जोर से रुदन करने लगी और राम-कृष्ण, उनसेन आदि को बुरी तरह गालिया देने लगी। तब