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हरिवंश की उत्पत्ति मृति दाता वृषभमेन की संवाकर अपने अपने स्थानो पर चले गये। इसके बाद भगवान मुनिसुव्रत ने भी विहार के योग्य स्थान पर विहार किया। भगवान मुनिसुव्रत तेरह मास पर्यन्त छद्मस्थ रहे । पश्चात् ध्यान रुपा प्रबल अग्नि से घातिया कर्म रुपी ईन्धन के जलते ही उन्हे
आश्विनसुदी पचमी के दिन केवलज्ञान का लाभ हुआ। उस समय केवलनान रुपी अखड नेत्र से समस्त जगत् भगवान् को एक साथ भासने लगा एव जिस प्रकार निरावरण सूर्य को पदार्थ के प्रकाश करने में दूसरे की सहायता नहीं लेनी पडती उसी प्रकार भगवान् मुनिसुव्रत को भी क्रम या रीति से जतलाने वाले अन्य पदार्थ की सहायता न लेनी पडी। भगवान् को केवल ज्ञान होते ही इन्द्रों के पासन कपित हो गये वे तत्काल श्रासनी स उतर सात पैंड चले हाथ जोड़ मस्तक नवा भगवान् का नमस्कार किया। एव अत्यन्त आनन्दित हो देवों के साथ भगवान के पास आये । उस समय तीन मुवन के स्वामी उसे सुन्दर, अचिंत्य अनन्त श्रादित्य, विभूति से भूपित, भगवान् मुनिसुव्रत की को मनुप्य और देवो न भक्तिभाव से वन्दना की। भगवान् के समवशरण से बारह सभाय थीं । जिस समय मुनि देव आदि अपने-अपने स्थानो पर बैठ गये ता गणधर विशाल न भगवान से धर्म के विषय में प्रश्न किया भगवान ने भी द्वादशाग वाणी का प्रकाश किया। नमस्कार कर सब लोग अपन-स्थानों को चले गये । भगवान ने भी बहुत देशो मे विहार किया थार मघ के समान समस्त जीवों के हितार्थ धर्मामृत की वर्षा की। भगवान् के अठाईस गणवर थे जो द्वादशांगो तथा चोदह पूर्वा के पाठी ये । उत्तमात्तम गुण म भूषित तीस हजार मुनि थे। जिनका कि सात प्रकार का सघ था। सघ में पाचसौ मुनि पूर्वपाठी थे। इक्कीच हजार शिष्य पठारहसो अवधिज्ञानी, अठारहसी केवल ज्ञानी बाईस सा विक्रिया ऋद्वि के धारक पन्द्रहमी विपुलमति मनपर्यमज्ञानी एव वारसा रागद्वं प रहित भले प्रकार वाद करने वाले मुनि थे। तथा पचास हजार आर्यिका, एक लाख शिक्षाव्रत, गुणव्रत,आदि अणुवती के पालन करने वाल प्रायक एव तीन लाख सम्यगप्टि नाविका थीं। इस लिये जिस प्रकार नक्षत्रों ने वष्टित चन्द्र शोभित होता है उसी प्रकार सभा म स्थित मुनि आदि से वेष्टित भगवान् अतिशय रमणीय जान पडते थे । भगवान् मुनिसुनत का समस्त आयु तीस हजार थी। जिम में २२५०० वर्ष राज्य प्रस्था में एय शेष मयमी अवस्था में व्यतीत हुई।