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जैन महाभारत
करके महामोहरूपी मैल को धोकर लोक के अग्रभाग मे विराजमान परमसुख के स्थान मोक्षलाक मे चला जाय ।"
भगवान मुनिसुव्रत का पुत्र महारानी प्रभावती से उत्पन्न कुमार सुव्रत था । भगवान् ने उसका राज्याभिषेक किया जिस से हरिवशरूपी विशाल आकाश का चद्रमास्वरूप कुमार सव्रत श्वेत छत्र चमर और सिंहासन को तत्काल शोभित करने लगा। अनन्तर इन्द्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा तैयार कर लाई गई पालकी मे सवार हो भगवान् शीघ्र ही वन की ओर चल दिये । जब तक वह पालकी पृथ्वी पर चली तब तक तो राजाओ ने वाहा और आकाश मे देवगण वाहने लगे । वन में जाकर भगवान् ने कार्तिक सुदी सप्तमी के दिन दीक्षा ग्रहण की और छः दिन का उपवास कर निश्चल बैठ गये। जिस समय भगवान मुनिसुव्रत ने दीक्षा ली थी उनके साथ हजार राजा और दीक्षित हुये। दाक्षा के समय भगवान् ने नोचकर जो केश उखाड़े थे उन्हे इन्द्र ने बहुमान से विवि पूर्वक क्षीरोदधि समुद्र मे क्षेपण किया। इस प्रकार भगवान् का तीसरे x दीक्षाकल्याणक उत्सव मनाकर देवगण अपने-अपने स्थानों पर चले गये। जिस प्रकार हजार किरणों का धारक सूर्य शाभित होता है उसी प्रकार मति श्रुति अवधि और मनपर्यय इन चार ज्ञानों से भूपित भगवान हजार राजाओ से मंडित अतिशय रमणीय जान पड़ने लगे। उपवास के अत में दूसरे दिन भगवान् आहार विधि के बतलाने के लिये आहारार्थ कुशाग्रपुर आये और वहां वृषभदत्त ने उन्हे आहारदान दिया।
उस समय सुन्दर शब्दो से समस्त आकाश को आच्छदन करने वाली देव दु दुभिया बजने लगी सुगन्धित जल बरसाने लगा, अनुकूल पवन बहने लगा, पुप्प वृष्टि होने लगी और आकाश से रत्न वर्षा हुई। इस प्रकार बहुत समय तक देवो ने आकाश मे स्थित हो अतिशय उत्तम एव अन्य के लिये दुर्लभ ये पांच दिव्य प्रगट किये एव पुण्य
+कल्याणक का अर्थ है कल्याण करने वाला, तीर्थकर भ० के पाच कल्याणक होते हैं, १. च्यवन, २. जन्म ३ दीक्षा, ४ कैवल्य और ५ निवारण, ये पाचो अवस्थायें कल्याणप्रद होती है अत कल्याणक कही गई हैं।