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________________ हरिवश की उत्पत्ति पतगा दीप शिखा पर जल मरता है इसी प्रकार चित्त को चचल बना देने वाले रमणियों के कटाक्ष पात और मन्द-मन्द मुस्कराहट की प्रभा से अलोकिक मुख मडल को देख कामनी से सतप्त हा नानाविध विषयो मे फस जाता है । जो लोग स्वल्प शक्ति वाले है निर्बुद्धि है, वे यदि विपय भोगरूपी पक मे फस जाय तो कोई आश्चर्य नहीं, किन्तु जो वज्रवृपभनाराचसहनन के धारक हे आर उत्तम हैं वे भी इसमें फस जाते हैं यह बड़ा आश्चर्य है । जी जीव अनेक वार स्वर्गसुखरुपी अनत समुद्रा को पीकर जरा भी तृप्त न हुआ वह बिल्कुल थोडे दिवस रहन वाल इस भूलाक के सुखरूपो जलविन्दु स कभी तृप्त नहीं होगा, जैसे हजारों नदियों के मिल जाने से भी समुद्र नहीं भरता उसी प्रकार अनेक प्रकार के सांसारिक काम भोगां से इस जीव की भी कभी तृप्ति नहीं होती । भोगवालारूप भयकर अग्नि ज्वाला के बढाने के लिये ये विषय-इन्धन की राशि के समान है और विषयों से हट जाना एव इन्द्रियों का वश करना आदि सयम उस अग्नि ज्वाला को शाति करने वाली निश्चल जलधारा है । अव मुझे असार भूत इस विषय सख का परित्याग कर बहुत जल्दी परम पवित्र मोक्ष के लिये प्रयत्न करना चाहिये और पहिले अपना प्रयोजन सिद्ध कर पश्चात् दूसरे प्राणियो के हितार्थ परमपवित्र सच्चे तीर्य को प्रवृति करनी चाहिये। ____ इन प्रकार मति अति और अवधिज्ञानरूप तीन नेत्रो से शाभित स्वयभू भगवान मुनिसुव्रतनाथ के स्वयमेव वैराग्य होन पर देवेन्द्रों के 'पासन कम्पायमान हो गये एव सोधर्म आदि स्वर्गो के देव तत्काल कुशाग्रपुर में आ गये । उस समय मनोहर कु डल ओर हारों से शोभित वंतकातिके धारक मारस्वत आदि लोकातिक देवा ने आकर पुष्पांजलियो की वर्षा की ग्व हाथ जोड कर मस्तक नवा नमस्कार कर व इस प्रकार स्तुति करने लगे अखड ज्ञानरुपी किरणों से प्रबल माहावकार को नाश करने वाले भव्यभावनारूपी कमलनियों के विकास करन में अकारण वन्धु (सूर्य) हितकारी, बीसवे तीर्य के प्रवर्तक हे भगवान् जिनेन्द्र । आप बढ़ जयवत रहें और जीवं । प्रभा, यह समस्त लोक भय कर ससार रूपी दुःख ज्वाला से सतप्त हो रहा है, इसके हितार्थ श्राप शीघ्र ही धमतीर्थ की प्रवृत्ति फर जिस से कि यह प्राप के द्वारा प्रकटित धर्मतीर्थ में स्नान
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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