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जैन महाभारत
हो उठी। वे शरद ऋतु गहवा के कोकों से उबर-उबर छितराती हुई मेघ-मालाओं को देखकर मन ही मन सोचने लगे कि यह शरद् ऋतु का अत्यन्त मनाइर मेघ देखते हो देखते कैसे विलीन हो गया । इसी प्रकार मसार, आयु, शरीर आदि सभी पदार्थ क्षणभंगुर है, किन्तु महामोह के पाश में पड हुए इस मानव को इस नश्वरता का कुछ भी तो भान नही होता, मानो ये मेघ क्षण भर में विलीन होकर मनुष्य की प्रांखो के सामने नश्वरता का प्रत्यक्ष चित्र यकित कर देता है। ग्रह । शुभाशुभ परिणामा द्वारा मंचित अल्पप्रमाण परमाणुओं का राशिस्वरूप यह रूप मेघ निस्सार है, क्योंकि कालरूपी प्रचड पवन के बंगाघात सेतितरवितर होकर यह पलभर में नष्ट हो जाता है। जिसकी सधिया वज्रस्वरुप (ववृपभनाराच) हैं और रचना सुन्दर है ऐसा मनोहर भी यह शरीर रूपी मंत्र मृत्युरूपी महापवन के वेगस भग्न हुआ असमर्थ के समान विफल हो जाता है। सौभाग्यरुप और नवयौवनरूपी भूषण स भूषित, समस्त मनुष्यों के मन और नेत्रों को अमृततुल्य सुख वर्षान वाले इस शरीररूपी मेघ की क्रांति वृद्धावस्था रूपी पवन समूह से ममय-समय पर नष्ट होती रहती है। ज्योज्यो आयु बढ़ती जाती ह त्या-त्या यह शरीर क्षाण होता चलता है ।
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जो राजा अपन पराक्रम म अपने बड़े-बडे शत्रुओं को वश करने वाले हैं; उन्हे भा यह काल रूप प्रचण्ड चत्र का घात बात की बात मे चूर-चूर कर देता है । ससार मे नेत्र और मन को अतिशय प्यारी स्त्रिया और प्राणा के समान प्यारे सुख मे सुखी दुःख मे दु.खी मित्र और पुत्र भी सूखे पत्ते के समान कालरूपी पवन से तत्काल नष्ट होजाते है "दीप व अणन मोहे, नेया उयद मदट्टुभव" अर्थात् जीवों के शरीर क्षणभंगुर हैं इस तथ्य का भली भांति जानते और मृत्यु से डरते हुए भी ये प्राणी मोहान्धकार से अन्धा होकर इष्ट मार्ग को न अपना अनिष्ट विषयों की ओर ही बढता है । जिस प्रकार कांटे पर लगे मांस की लोभी मछली रसनेन्द्रिय के वश में पड कर काटे में फस जाती है उसी प्रकार पाच कामगुणो मे अन्धा हुआ यह जीव घोर कर्मबन्ध में बन्धता है । जिस प्रकार सुगन्ध का लोभी भौरा फूलो मे बधकर तड़प-तड़प कर प्राण दे देता है, उसी प्रकार सुगन्धलोलुप मानव भी एक दिन काल के गाल मे समा जाता है । जिस प्रकार रूप का लोभी