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जैन महाभारत कृपाचार्य मुस्करा पड़े-“दुर्योधन । बालकों जैसी बात मत करो। बुद्धि से काम लो।"
दुर्योधन क्रोध में आकर बोला-"आप हठ पर अड़े हुए हैं तो कान खोल कर सुनिए, मैं कणे को राजकुमार नहीं अभी राजा ही बनाए देता हूँ।" यह कह कर उसने कर्ण का वहीं राज्याभिषेक कर दिया, और उसे अङ्ग देश का राजा बना दिया। कर्ण की छाती गर्व से चौड़ी हो गई। वह मन ही मन कहने लगा--दुर्योधन तुम ने सहस्रों लोगों के सामने मेरे मान की रक्षा की है, तुम ने आड़े समय पर मेरा साथ दिया, तुम ने मित्रता का उच्चादर्श दर्शाया, तुम ने मुझे रथवान पुत्र से राजा बनाया इस उपकार को मैं जीवन भर नहीं भूलूगा, विश्वास रखो मैं भी तुम्हें आड़े समय पर इसी प्रकार काम दूगा, मैं भी तुम्हारे लिए एक आदर्श मित्र सिद्ध हूँगा।
पर दुर्योधन की भावना श्रेष्ठ नहीं थी, वह मित्रता के नाते नहीं बल्कि अर्जुन के प्रति ईर्षा होने के कारण यह सब कुछ कर सकता था अत वह मित्रता का उच्चादर्श नहीं था। बेचारे कर्ण की बड़ी भूल थी।
दुर्योधन ने कृपाचार्य को सम्बोधित करके कहा- "लीजिए । अब तो आपकी शर्त पूरी हो गई ? आपके लाइले अर्जुन मे यदि अपार बल है, तो लड़ाई में उसे कर्ण से । "इतना कहकर उसने एक व्यंग पूर्ण दृष्टि द्रोणाचार्य पर डाली।
उसकी धृष्टता देखकर कुन्ती अत्यन्त व्याकुल हो गई । वह सोचने लगी-"कृपाचार्य की कृपा से जो अनर्थ टल गया था, दुर्योधन की दुष्ट बुद्धि और ईर्ष्या के कारण फिर उपस्थित हो रहा है। फिर भी सदा सत्य की ही जय होती है । काश ! कोई नया उपाय निकल आये इस अनर्थ को टालने का।"
उधर भानु (अपर नाम विश्वकर्मा) रथवान को जाकर किसी ने सूचना दे दी कि तुम्हारा बेटा राजा बन गया, वह समाचार सुनकर फूला न समाया, अपने भाग्य की सराहना करता हुआ, भागता हुआ परीक्षा स्थल पर आ गया, और कर्ण के पास जाकर कहा-"बेटा ! तू धन्य है।"