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जैन महाभारत
आंखों भी नहीं सुहाते, तथापि उसके प्रति भी प्रकट रूप में वे कोई खिन्नता न दिखाते। बड़े ही प्रेम से व्यवहार करते ।
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एक दिन द्रोणाचार्य अपने समस्त शिष्यों को लेकर यमुना तट पर गए । यह आयोजन शिष्यों के मनोविनोद के लिए किया गया था। सभी शिष्य क्रीड़ा करने लगे और द्रोणाचार्य यमुना जल मे स्नान करने लगे । स्नान करते समय एक ग्राह ने उनका पैर पकड लिया । वे इतने शक्तिशाली थे कि चाहते तो स्वय ही प्राह से अपना पैर छुड़ा लेते, पर अपने शिष्यों की परीक्षा लेने का सुन्दर अवसर जान कर वे चिल्लाए - " दौड़ो, मुझे बचाओ, मुझे माह ने पकड़ लिया ।"
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गुरुदेव की चिल्लाहट सुन कर सभी शिष्य तट पर आ गए और सोचने लगे कि गुरुदेव को कैसे बचाया जाय । यदि पानी में उतरे और ग्राह ने हमें ही पकड़ लिया तो क्या होगा ? इतने ही में अर्जुन ने धनुष सम्भाला, बाण चढ़ाया और धड़ाधड़ ऐसे बाण चलाए कि ग्राह बुरी तरह घायल हुआ । और चीख मार कर द्रोणाचार्य को छोड़ भागा बाण द्रोणाचार्य को न लगे । यही बाण चलाने की दक्षता थी ।
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द्रोणाचार्य वाहर आये और कहने लगे " शिष्यों ! आज तुम सभी यहां उपस्थित थे | मैंने सभी को सहायता के लिए पुकारा था, पर तुम सब हतप्रभ हो कर खड़े रहे, अकेले अर्जुन ने ही मुझे क्यों छुड़ाया ?" अर्जुन की पीठ थपथपाते हुए वे बोले "बेटा ! तू वास्तव मे मेरा सच्चा शिष्य है । यदि आज तू न होता तो यह पृथ्वी द्रोण रहित हो जाती । तू ने मेरे प्राण बचाए और इस प्रकार अपने और इन सब के गुरु की रक्षा की। यदि आज मैं समाप्त हो जाता तो सभी की विद्या अधूरी रह जाती ।"
- "गुरु जी । इस में मेरा क्या है । अर्जुन ने हाथ जोड़ कर कहा, यह विद्या तो आप की ही दी हुई है । आप की विद्या से आप का अनमोल जीवन बच गया तो इस में मेरी प्रशंसा की क्या बात है ?"
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द्रोण ने अर्जन की बात से गद् गद् हो कर कहा- पुत्र । यही तो तेरी विशेषता है । यदि तेरे स्थान पर और कोई होता जिस ने वही विद्या सीखी है जो तुझे मैंने सिखाई है तो ऐसे तीर चलाता कि ग्राह