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अर्जुन के प्रति ईर्ष्या
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गया । श्रश्वत्थामा ने जो धागे भागता हुआ यह देखता जाता था कि अर्जन कितना पीछे रह गया है, अर्जन को वारा चलाते देस लिया था। जय यह वापिस लौटने लगा और रास्ते में अर्जुन की न मिला तो सोचने लगा 'यन आज अर्जुन अवश्य हार गया, यह तो बदी खेल में ही रह गया या किसी दूर की झील पर चला गया ।" प्रसन्न चित्त श्रवयामा जय द्रोणाचार्य के पास पहुँचा तो देसा कि अर्जुन बैठा है। उस का उतर गया फिर भी बोला "पिता जी ! जुन पान तो देखिए भरा है या गाली दें। यह तो घडे में वीर मार कर लौट आया है ।"
द्रोणाचार्य मुस्कराते हुए उठे और अर्जुन के घड़े को देखा । वह तो जल से भरा था। अश्वत्थामा को सम्मोधित करके यलि "पुत्र तू भी उठ कर देख ले | भरा है या खाली है।"
श्रश्वत्थामा का चेहरा फीका पड़ गया। तय उस की नमक में धारा किवा चलाने का रहस्य किया था। वह दुखित होकर बोलाअर्जुन ने रुपा में पड़ा भरा है और मैंने नरोवर मे । मुझे मालूम होता कि व्यापणा की परीक्षा लेना चाहते है तो मैं सरोवर पर पर्यो जाता ?"
द्रोणाचार्य बोले- "पुत्र मैन कय कहा था कि नरोवर में भरना या पापा | यह तो तुम्हारी बुद्धि की परीक्षा थी । यदि तू भी ऐसा दो रातो पौन शेषता था।