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द्रोणाचार्य
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अर्जुन ने सोचा गुरुदेव के प्रति अपने कर्तव्य से निभाना मेरा धर्म है। उनका में उऋण होने का इसने यहकर और क्या उपाय हो मकता है कि मैं उन की प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए अपने प्राणों तक की बाजी लगा दूंगा। जन एक भील युवक (एन्तव्य ) गुरु दक्षिण में अपना यह अगूठा छोड सकता है, जिम के द्वारा गुरु प्रसाद ने प्राप्त पी विद्या सार्थक होती है। तो क्या मैं इस भील बुक से भी टीन नहीं, यहां भाग्य आज मुझे गुरुदेव को सन्तुष्ट करने तथा गुरु भक्ति फा आदर्श प्रस्तुत करने का जीवन में शुभ अवसर मिल रहा है।
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