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जैन महाभारत
करता कि उसे पेट भर रोटी मिल जाया करे । वरन उसके हृदय में अपने शिष्यो के प्रति कुछ आशाएं होती है । वह एक सुन्दर स्वप्न देखता रहता है। वह अपनी अमूल्य निधि विद्या को शिष्यो में बखेर देता है, केवल रोटी के लिए नहीं बल्कि वह जानता है कि इस अमूल्य निधि के बीज से जो अंकुर निकलेगे कभी वह उसकी सन्तान से भी बढ़ कर उसके काम आयेगे। उसका सिर ऊंचा करायेंगे। जानते हो जिनका गुरू अपमानित होता है उन्हें दुनियां क्या कहती है ?"
सभी शिष्य चुप रह गए । द्रोणाचार्य स्वय बोले "उन्हें सारा संसार कहता है कि यह तो उसी गुरु के शिष्य है जिसका कोई मान नहीं जिसकी कोई इज्जत नहीं, जो अपने स्वाभिमान का मुल्य नहीं जानता तो फिर उस गुरु के शिष्य स्वाभिमान की रक्षा भला क्या करेंगे । मैं तुम्हे शिक्षा दे रहा हूँ इस आशा से कि तुम सब भावी शूरवीर हो, महान् बलवान ओर जगत विजयी हो । तुम्हारे पौरुष्य से और मेरे द्वारा दी गई विद्या से तुम सारे ससार में अपनी श्रेष्ठता की ध्वजा ऊ ची करोगे। तुम अपने पितृ कुल और गुरुकुल की लाज की रक्षा तथा अपने कुल और गुरु के शत्रुओ के मान को चूर्ण करोगे। गुरु का इतना बड़ा ऋण होता है कि शिष्यों का उससे उऋण होना दुर्लभ है। मैं तुम्हे समस्त विद्याओं में पारगत करने में प्रयत्न शील हूं ताकि तुम मेरी प्रतिज्ञा को पूर्ण कर सको।
इतना कहकर वे चुप हो गए। कुछ देर तक उन्होंने अपने समस्त शिष्यों के मुख देखे, उन पर आये मनोभावों को पढ़ने की चेष्टा की
और बोले---गम्भीर मुद्रा में मैंने एक प्रतिज्ञा की है, जो शिष्य अपने प्राणों का मोह न करता हो और मेरे लिए अर्थात् अपने गुरु के सम्मान के लिए अपना सर्वस्व देने को तैयार हो, वह शूरवीर मेरे सामने आये
और मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण करने का वचन दे । याद रखो मेरी प्रतिज्ञा सुशिष्य के पौरुष पर ही आधारित है।
गुरुदेव की बात सुन कर समस्त शिष्य विचार मग्न हो गए अधिकतर सोचने लगे "गुरुदेव का क्रोध बड़ा उग्र है । वह जिस बात को ३ पकड़ लेते है छोड़ते नहीं क्या पता उन्होंने क्या प्रतिज्ञा कर रखी है। हम से पूर्ण भी होगी या नहीं यदि वचन दे दिया और पूर्ण न हुई तो गुरु के साथ विश्वास घात होगा।"