________________
३६०
जैन महाभारत
"तुम तो सारी दुनिया को अविश्वास की दृष्टि से देखने लगी हो। सच है भूख ओर निर्धनता मनुष्य को निराशा के ऐसे गहरे गड्ढे में फेंक देती है जहाँ गिरकर वह सारे ससार मे अधकार समझने लगता है" द्रोण ने व्यग कसते हुए कहा।
"तो फिर आप जाकर प्रकाश देख लीजिए, पत्नी कहने लगी, मैं तो वास्तविकता की बात करती हूँ।" ।
"अच्छा तुम मुझे दो रोटियां तो बांध दो । लम्बी यात्रा है। मैं आकर बता दू गा कि वास्तविकता क्या है ?". द्रोण की बात सुन कर उसने कहा, "खैर राज्य की बात आप छोड़िये आपके मित्र हैं कोई काम तो दे ही देगे। उन से काम. मांगना । हमे राज्य नहीं चाहिए। भर पेट रोटी मिल जाय वही बहुत है।"
द्रोण ने पांचाल की ओर प्रस्थान किया । आज वे बहुत प्रसन्न थे। अनेक आशाए मन में लिए पांचाल की राजधानी पहुँच गए । द्वारपाल से कहा "अपने राजा से जाकर कहो कि आपका मित्र द्रोण आप से भेंट करने आया है।"
द्वारपाल ने द्रोण को ऊपर से नीचे तक देखा । वह सोचने लगा, कि वस्त्रों से तो ऐसा नहीं लगता कि यह व्यक्ति राजा का मित्र होगा। उसी समय द्रोण ने फिर कहा "देख क्या रहे हो। मैं तुम्हारे राजा का घनिष्ठ मित्र हूं। मेरा नाम द्रोण है। जाकर अपने राजा से कह दो" द्वारपाल ने जाकर राजा को सूचना दी। द्रोण का नाम सुनकर वह सोचने लगा "कौन द्रोण ? द्रोण शब्द का क्या अर्थ हुआ? 'इस नाम के व्यक्ति को क्या मैंने कभी देखा है ? नहीं, सम्भव है देखा भी हो । सूरत देखकर कदाचित् याद आये" अतएव उसने द्वारपाल को आज्ञा दी "अन्दर ले आओ।"
द्वारपाल ने उन्हे अन्दर भेज दिया। वे कई द्वार पार करके एक बड़े सुसज्जित कमरे में पहुँचे, वह था दरवार खास । ऊंचे से सिंहासन पर मयूर पखों के समान बने अर्ध गोलाकार स्वर्ण पट से कमर लगाए पद विराजमान थे। अभी तक द्रोण को आश्चर्य हो रहा था कि पद दौड़ता हुआ द्वार पर ही उन्हें लेने क्यो नहीं आया ? उन्हें तो आशा थी कि जब द्र पद उनके आगमन का समाचार सुनेगा, स्वागत के लिये दौड़ा आयेगा, पर जब वह द्वार पर स्वयं नहीं आया तो उन्होंने