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द्रोणाचाय
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- और उसी समय उन्हें यह भी ध्यान आया कि उनका मित्र
पर राज्य सिंहासन पर बैठ गया है । उसके रहते वृथा कर उठाने की
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क्या आवश्यकता है? उसने तो उन्हें श्राधा राज्य देने की प्रतिज्ञा की थी। वे क्यों न उसी के पास जायें । वह अवश्य ही उनके दुखो का निवारण करेगा । द्रपद की याद आनी थी कि उनका चेहरा खिल उठा । मस्तिष्क से चिन्ताए हवा हो गई। सोचने लगे "वाह । मैं भी कितना मूर्ख हॅ, श्रपने ऐसे घनिष्ट मित्र जिसने श्राधा राज्य देने की प्रतिज्ञा की है, को भूल बैठा हू और बेकार ही चिन्ताओ एन पीडाओ मं घुल रहा हॅू। द्रुपद जैसे मित्र के रहते भला मुझे किस बात की फमा हूँ । ?"
उन्होंने उसी समय पांचाल की ओर प्रस्थान की तैयारी की। पति के मुए चेहरे को खिला हुआ देख और बाहर जाने की तैयारियां देख कर उनकी पत्नी पूछ बैठी "आज तो आप ऐसे खिल रहे हैं मानो कहीं का राज्य ही आपको मिल गया हो।"
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“हाँ, दाँ, राज्य ही तो लेने जा रहा हूँ ।"
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"वम, यम राज्य और आपको ? स्वप्न तो नहीं देख रहे ?" "नहीं, नहीं, स्वप्न नहीं । मैं द्र पद के यहां जा रहा हूँ । जानती हो राजा पद तो मेरा घनिष्ट मित्र है। उसने प्रतिज्ञा की थी कि जब राज्य सिंहासन पर बैठूं गा तो आधा राज्य तुम्हे दे दूंगा। अब तक उनकी मुझे याद ही नहीं आई । यस आज उसी के पास जा रहा हू" द्रोण ने उत्साहपूर्ण शैली में कहा ।
"तो यह यात है ? - पत्नी फहने लगी- "आप समझ रहे हैं कि द्रपद यापकसे याचा राज्य दे देगा ? कहीं घान तो नहीं चरगए। एम राज्य देने वाले होते तो अय तक खपर न लेते कितने दिन हो गए उसे सिंहासन पर बैठें ?"
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"सने भी तो मेरी ही मूल है। वह तो बेचारा मेरी प्रतीक्षा में देवहा पहुचने दो कैसा भाग्य जागता है १" दोरा बोले । "नाथ | जय थापको ही उनकी याद न रही ? और जब याद तक नरही नो प्रतिज्ञा फोन मी मोहरा है। राजपाट का स्वप्न पत्नी ने |
वाद रही होगी ? छोडिए कोई काम