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जैन महाभारत
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बहलाना ही होगा ।" अश्वत्थामा ने अपनी माता का दूध पिया था परन्तु उसे कभी गाय अथवा भैंस का दूध न मिला था । अतएव उसे किसी प्रकार बहलाया ही जा सकता था । द्रोण बोले "अच्छा तो तू दूध पियेगा। रो मत, मैं तुझे अभी ही दूध लाता हूं।" और वे अन्दर घर मे गये और जौ का आटा पानी में घोल कर ले आये 'ले दूध बी ।" बालक बेचारा क्या जाने कि यह दूध नहीं है । वह उसी को पी कर सन्तुष्ट है। गया । उसे इस बात का अपार हर्ष हुआ कि आज उस ने दूध पिया | परन्तु द्रोण का हृदय रो रहा था। अपनी विवशता पर वे ला रहे थे । अश्वत्थामा प्रसन्न चित्त हो फिर खेलने चला गया और बालको मे जाकर डींग हांकी कि आज उस ने बहुत सारा दूध पिया है | किन्तु द्रोण ? द्रोण तो अपनी दुर्दशा पर खिन्न हो रहे थे । वे सोच रहे थे कि क्या इन पीड़ाओं का भी कहीं अन्त है । वे शस्त्रविद्या और शास्त्र विद्या मे अद्वितीय है । उन्हें अपने पर गर्व हो सकता है पर जिसे पेट भर रोटी न मिलती हो क्या वह भी अपने पर गर्व कर सकता है ? नहीं ? वह गर्व करे तो किस बात पर ? द्रोण महान् विद्वान होने पर भी दरिद्र थे । वे जीवन यापन का उपाय सोचने लगे । वे कोई छोटा मोटा कार्य भी कर सकते थे । पर उन की विद्या तो उस कार्य में फंस कर चमकने के बजाय अन्धकार मे जा पढ़ती। जिस का पुनरोद्धार दुर्लभ हो जाता ।
क्या वे किसी प्रकार इस अमूल्य निधि की रक्षा कर सकते है ? क्या विद्या का समुचित आदर कायम रखने में वे सफल हो सकते है ? क्या वह अपने परिवार की इस शानदार परम्परा की रक्षा कर सकते हैं कि प्राण भले ही जायें पर विद्या और उसके सम्मान को बट्टा न लगने देंगे। क्या किया जाय ? इसी प्रश्न में वे उलझे रहे । उन्हें एक ही रास्ता दिखाई दिया कि राजदरवार में जाकर उपयुक्त कार्य की खोज करें । सर्वज्ञेव भाषित शास्त्रों में लिखा है कि अन्तराय कर्म जो प्राणी ...ाँच प्रकार से बांधता है, उसके सामने विघ्न अन्तराय कर्म आता है, उदय से जीव जो चाहता है वह नहीं होता, किन्तु सर्वज्ञ भाषित मे इसका उपाय भी बताया है, कि उद्यम से आत्मा उस अशुभ को टाल सकता है। आध्यात्म उद्यम के साथ साथ व्यवहारिक म भी होना चाहिए ।