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________________ द्रोणाचार्य जाता है। उस समय की विवशता बढी गहरी होती है। मानों कलेजे पर किसी ने करीत चला दी हा। बड़े बडे साहसी भी उस समय चचल हो उठते है । उन्हें अपने से घृणा होने लगती है और वे जिस समाज में रहते हैं उस समाज के विरुद्ध विद्रोह करने पर उतारू हो जाते है। अश्वत्थामा की याचना से द्रोण का हृदय द्रवित हो गया। दुःख अमय होने पर भी वे विवश थे । वे सोचने लगे-"मेरी विद्या और चुद्धि का क्या लाभ, जब मैं अपने बालक को दो छटाक दूध भी नहीं पिला सकता ? मैने अपना जीवन विद्याध्ययन में बिता दिया और एक गाय तक का प्रबन्ध नहीं कर सकता। कितना दरिद्र हू मैं ? क्या मेरी विद्या व बुद्धि मिट्टी के समान नहीं। पर मिट्टी का भी तो कुछ मोल होता है। मेरी विद्या तो उस से भी गई। यह ससार भी कैसा निष्ठुर है । विद्या की प्रशंसा करते करते नहीं अघाता पर विद्वानों को रोटी के दो सूखे टुकडे उमके यालकों को दो छटांक दूध भी नहीं देता । लोगों को यह क्यों नहीं सूझता कि विद्या विद्वानों के सहारे टिकी हुई है, उन का जीवन मूल्यवान है। यदि उन्हें रोटी नहो मिलेगी, उन के यच्चे एक छटाफ दूध के लिए तरसेगे तो कैसे टिकेगी विद्या ? विद्वानों का कर्तव्य तो नवीन विद्या का उपार्जन करना और समान फो विद्यावान बनाना है। दाल रोटी की चिन्ता में वे पड़े रहे तो केसे रहेंगी विद्या ? कैसे नवीन विद्या का उपार्जन चल सकेगा? धनी लोग चाहते हैं कि विद्यावान उन के सामने माथा टेके, उनकी दासता फरें। पर क्या मैं अपनी विद्या का अपमान होने देगा? नदी । मैं अपने पेट के लिए अपने यालक के जीवन के लिए भी विद्या को धातु के सामने, पैने के लिए नाक नहीं रगड़ने दूगा। में विद्या को अपमानित नही होने दूगा।" इसी प्रकार के विचारों का ज्वार भाटा जग के मन सागरम भा रहा था । उन के अन्दर अन्तद्वन्द्व चल रहा था। तभी अश्वत्थामा ने रो फर फिर आग्रह किया "पिता जी । आप एसमय पालरी फे रिता तो दूध पिलाते हैं। और आप .. नदी में वो दूध दिडगा।" द्रोण दे शरीर में से एक साथ सैकड़ों विन्दुमा ने डंक मारा। वे लिमिला है। महीने सोचा “यालक को हठ है । उसे किसी प्रकार
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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