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जैन महाभारत वे फिर दुखी रहने लगे। अब वे अधिक विद्वान हो गये थे, पर अपनी विद्वता को रोटी की भांति तो नहीं खा सकते थे। पेट विद्या तो नहीं मांगता, वह तो रोटी गॉगता है। पर रोटी दूर दूर तक नहीं थी। पेड़ पर लटकी होती तो वे तोड़ भी लाते ।
अश्वत्थामा बालकों में खेल रहा था। खेलते खेलते मध्यान्ह का समय हो गया। दूसरे बालको ने खेल बन्द कर दिया और अपनेअपने घर को चल दिये। अश्वत्थामा एक बालक को रोककर पूछ बैठा "भई, खेल में तो आनन्द आ रहा था, तुम लोग घर क्या करने चल दिए।"
"पहले दूध पी आयें, फिर खेलेंगे" घालक बोला। "क्या तुम रोज दूध पीते हैं।"
"हां! हम रोज दोपहर को भी दूध पीते हैं" बालक ने कहा और घर की ओर जाते जाते इतना और भी कहता गया-"तुम भी दूध पी श्राओ फिर खेलेंगे।"
अश्वत्थामा घर चला पाया और आते ही अपने पिता जी, द्रोण से विनयपूर्ण भाव से कहा "पिता जी! हम तो दूध पियेंगे।" द्रोण के हृदय पर एक आघात लगा।
अश्वत्थामा फिर बोला "पिता जी! सारे बालक रोज दोपहरको दूध पीते हैं। मुझे फिर दूध क्यों नहीं पिलाते । आज तो हम भी दूध पियेंगे।"
"बेटा दूध बहुत बुरी चीज होती है। अच्छे बच्चे दूध नहीं पिया करते।" द्रोण ने अश्वत्थामा को बहलाने का प्रयत्न किया।
"नहीं नहीं । हम तो दूध पियेंगे।" अश्वत्थामा अपनी जिद पर ही डटा रहा।
द्रोण का मन रो उठा। अब वह बच्चे को कैसे बहलायें । जिस समय किसी का बालक किसी वस्तु की जिद करता हो। और वह " अपनी विवशता के कारण बालक की हठ पूर्ण न कर पाये तो उसके बन पर क्या बीतती है, यह वही जानता है जिस पर ऐसी विपदा पड़ी
। कहने को इतना कहा जा सकता है कि उस समय पिता की छाती * फटी सी जाती है। उस समय का कट हार्दिक कष्ट असहनीय हो