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जैन महाभारत धाय कांपते हुए बोली “कुरु जांगल देश मे कौरव वश में उत्पन्न हुआ, अतुल विभूति का स्वामी पाण्डू नामक एक शूरवीर नृप है । वह कुन्ती के रूप एवं गुण पर अत्यन्त आसक्त था। उसने आपसे कुन्ती के लिये याचना भी की पर आपने ध्यान न दिया। तब वह स्वयं कुन्ती से प्रार्थना करने के लिये यहां आ पहुँचा।"
"परन्तु वह यहाँ पहुंचा कैसे ?" अंधक वृष्णि ने विस्मित होकर पूछा। ___"वह कुन्ती से भेट करने का इच्छुक था, और आप जानते ही है कि चाह है तो राह है। उसे कहीं से एक ऐसी अगूठी मिल गई जो व्यक्ति को उसके एच्छिक स्थान पर पहुंचा देती है और वह व्यक्ति दूसरों को देखता है, पर दूसरों को दिखाई नहीं देता। एक दिन वह अवसर पाकर राज उद्यान में उसी अंगूठी के सहारे पहुँच गया, वहाँ कुन्ती ही थी। दोनों एक दूसरे पर आसक्त हो गये। मनकी छुपी इच्छा फूट पड़ी। आग और बास पास आने पर जल ही पड़ते है, युवावस्था थी ही, बिना परिणाम पर विचार किये दोनो ने गधर्व विवाह किया और यह सब कुछ हो गया जो आप देख रहे हैं । कुन्ती ने यह सब मुझे बता दिया, जो कि आपके सामने ज्यों का त्यों मैं सुना चुकी । इसमे मेरा कोई दाष नहीं है।" ___अंधक वृष्णि और उनकी रानी रानी सारी बात सुनकर पछताने लगे। "इससे तो अच्छा था कि कुन्ती का पहले ही पाण्डू के साथ विवाह कर दिया जाता" ऐसा सोचकर व पश्चाताप करने लगे। पर अनायास ही पूछ बैठे "इस का प्रमाण क्या है कि पाण्डू यहाँ पहुंचे।
इसके प्रमाण स्वरूप कुन्ती के पास उनकी अंगूठी है।
"जो हो, अच्छा नहीं हुआ।" नृप के मुंह से निकला। अब तो एक ही उपाय है कि कुन्ती का विवाह पाण्डू से तुरन्त कर दिया जाय । माता बोली।
गर्भ के दिन पूर्ण होने लगे और यह बात नगर तक पहुच गई। पर राजकन्या की बात थी, कोई भी खुल कर कह नहीं सकता था। अंधक वृष्णुि ने हस्तिनापुर विवाह का सन्देश भिजवा दिया। पर राजकन्या का विवाह था, कोई साधारण बात तो थी नहीं। पाण्डू नृप