________________
पुन्ती और महाराज पाण्ड
३११ पुल में क्यों न जन्म लें किन्तु स्वतन्त्र व उच्चरल होने पर जार-पुस्प कलमर्गस कुन को दोष लगा देती है। तू ने जो यह पाप कराया है,
म ने यदुयश कलकित हो गया। हम राजानों की सभा में बैठने लायक नदी रहे । हम किसी को मुह दिखाने योग्य नहीं रहे । हमारे फुल की मर्यादा मिट्टी में मिल गई । हमारी नाक कटा दी तू ने ।
धक वृष्णि के नेत्र जल रहे थे। वे दुसी हो कर कहने लगे। मी लिए वो कहा है कि नागिनी, सर्पिणी, नस वाले पशु पनी, निहामि और नारी पर दुष्ट का विश्वास नहीं करना चाहिए। हम ने तुझे उन्ती की रक्षा के लिए रखा था पर तू तो भूखी बिल्ली निकली। जिन दूध की रखवाली पर रखा तो वह दूध स्वय ही खा गई । तू पापिन और डायन निकली, जी में प्राता है कि अभी ही खड्ग मे तेरा गला फाट बालू । त ने हमे कहीं का न रखा।" __ तभी पुन्ती की माता भी भभक पड़ी "तुम जैसी विश्वामघातिनी के कारण ही तो नारी जाति अपमानित होती है। तू ने वह पाप किया ६ जिस का दएट वध भी फम ही है । 'प्रय तू ही बता हमारे पुल की नाक फटा फर तुझे क्या मिला ?"
धाय फा रोम रोम कम्पित हो रहा था, शरीर पनीने में लथपथ हो गया, मुंह मलिन हो गया । वह जैसे तसे अपने को सम्भाल कर और नमरत साहम पटोर कर बोली "राजन् पाप प्रशरण के शरए है। चदुगुल पे पालक है, "गुणवान तथा विद्वान् है । कृपा कर मेरे वचनों प। मावधान होरर सुनें ।"
"मय फहने सुनने के लिये घरा ही क्या है। पापिन !" "मेरी पान सो सुन लीजिये।"