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जैन महाभारत
सुधार का कोई तो मार्ग निकालो। मैं तो लोक लज्जा से अपने प्राण दे दूगी। मैं अपने कुल का कलंक नहीं बनना चाहती। मैं जग हंसाई सहन नहीं कर सकती।"
कुन्ती के नेत्रों से सावन भादों की झड़ी लग गई। इस दशा को देख कर धाय का भी दिल भर आया 'बेटी! ___अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत ।
इस प्रकार रुदन करने से अब क्या लाभ ! जो होना था सो हो चुका। अब तो धैर्य रखो । मैं तुम्हारे कल्याण के लिए जो भी उपयुक्त उपाय बन पड़ेगा अवश्य करूगी। तुम शान्त रहो । सावधानी से दिन व्यतीत करो।" इस प्रकार धाय ने धैर्य बंधाया। कुन्ती आशा की एक किरण पा कर सन्तुष्ट हो गई।
धाय बड़े यत्नों से कुन्ती के इस दोष को छुपाए रही। पर यह दोष आखिर कब तक छिप सकता है। गर्भ बढ़ता रहा। मुह की आकृति पीली पड़ गई, थूक अधिक आने लगा, शरीर में सुस्ती छा गई । चंचलता लुप्त हो गई । पेट कड़ा हो गया। त्रिबली भग हो गई। नेत्र सुहावने दीखने लगे । कचकम्भ उन्नत एव सुवर्ण की कांति सरीखे हो गए । अब भला इन सब लक्षणों पर पर्दा कैसे डाला जा सकता था। कितने ही यत्न करने के पश्चात् भी एक दिन कन्ती को उसके मातापिता ने देख लिया । वे भॉप गये । धाय को बुलाया गया। उनके नेत्रों में आश्चर्य भी था और क्रोध भी । पर धाय के सामने आते ही आश्चर्य की अपेक्षा क्रोध की मात्रा अधिक हो गई। बोले-"तू बड़ी दुष्टा, पापिन, नीच निकली ! बता तू ने कुन्ती से यह नीच कृति किस पुरुष के समागम से कराई । किस पुरुष को तू यहां लाई । दुष्टा ! तुझे रखा तो गया था इस लिए कि कुन्ती की रक्षा करना, पर तू ने खूब रक्षा की ?"
धाय मुह लटकाये खड़ी रही। कुन्ती के पिता अंधक वृष्णि चीख उठे "श्रो पापिन | क्या तू नहीं जानती कि नदी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है । जैसे नदी वर्षा ऋतु में अपने उन्माद से अपने ही तट को नष्ट भ्रष्ट कर डालती है उसी प्रकार स्त्री उन्माद में अपने कुलकिनारों को नष्ट कर देती है। क्या तू नहीं जानती कि कन्या और पुत्र । वधु को सम्भाल कर रखना चाहिए क्योंकि यह चाहे कितने ही उच्च