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कुन्ती और महाराज पाण्डू
३०७ उमी समय पाण्ट ने अपनी मुद्रिका उतार कर देते हुए कहा "लो यह है वह निशानी जिसे दिखा कर तुम कह नकती हो कि यह जो कुछ तुम्हें मिला है मेरे मिलन पौर मेरे साथ गधर्व विवाह द्वारा ही । मैं पदनाम होने का अवसर दिये बिना ही, तुन्हें इस चिन्ता से मुक्त करने का प्रबन्ध करू गा।"
युछ देर तक इसी प्रकार बातें होती रहीं । कुन्ती के अपों की मलक पाएद्ध के नेत्रों में भी मालक पड़ी।-और पाएडू वहा मे दस्तिनापुर की ओर चल पडे ।