________________
३०६
जैन महाभारत "क्यों"
"प्रश्नोत्तर में समय मत व्यतीत करो। जिसके हृदय में प्रेम की छोटी सी भी चिनगारी होती है वह अपने प्रेमी के लिए सारे ससार को लात मार देती है पाण्डू की बात कुन्ती के हृदय में चुभ गई।
"मैं आपके लिए प्राण तक दे सकती हूं, कुन्ती प्रेमातिरेक में बोली पर मुझे कौमार्य के धर्म का उल्लंघन करने पर विवश न कीजिए
पाण्डू नृप कुछ सोच में पड़ गए। उन्हें यह बात खटकी 'हाँ, कुन्ती के कौमार्य की रक्षा होनी चाहिए, अपने किसी कार्य से यदि मैं उसे बदनामी का शिकार कराता हूँ तो इसमें; तो मेरी अपनी भी अकीर्ति है। यह सोच तो गए पर कामवासना उन्हे चैन नहीं लेने दे रही थी। अतएव अपनी इच्छा पूर्ति के लिए उपाय खोजने लगे। अनायास ही मन में एक बिजली सी कौंधी । बोल उठे "कुन्ती तुम मुझ से गंधर्व विवाह कर लो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि शीघ्र ही तुम्हें संसार की दृष्टि में अपना बना लूगा । प्राणों पर खेल कर भी तुम से विवाह कर लूगा"
कुन्ती पहले तो इकार करती रही। पर वह अपने प्रेमी को जिसके लिए वह कितने ही दिनों से व्याकुल थी निराश न कर पाई । दासी से तुरन्त कुछ आवश्यक सामान मंगाया । दोनों ने गंधर्व विवाह किया। इस प्रकार वे पति पत्नी के रूप में आ गए और फिर प्रेमातिरेक से, आत्म विभोर होकर रति क्रिया में मस्त हो गए।
चलते समय कुन्ती के नेत्रों में अश्र छलछला आये । “मैं आपको विदा दू तो कैसे ? मेरा हृदय आपके वियोग में तड़फता रहेगा।"
"शीघ्र ही हम एक दूसरे के हो जायेंगे । विवाह का शीघ्र ही प्रबन्ध होगा तुम विश्वास रखो और मुझे कुछ दिनों के लिए विदा दो। यह ठीक है कि वियोग के दिन पहाड़ से प्रतीत होंगे, तुम्हें भी और मुझे भी । पर इस समय और कोई चारा भी तो नहीं" पाण्डू ने उसके नयनों मे झांकते हुए कहा। ___"आप तो चले जा रहे हैं कुन्ती बोली, पर आपकी इच्छा पूर्ति का जो प्रसाद मुझे मिला है, उसके लिए मैं लोगों की कितनी बातों का निशाना बनूंगी, इसका विचार आते ही मेरा रोम रोम कांप रहा है। लोग कैसे विश्वास करेंगे कि मैंने पाप नहीं किया"