________________
कुन्नी और महाराज पाह
३०५
"प्रिये । विवाह दो हृदयों के पवित्र वचन को कहते है । हमारे एक दूसरे को स्वीकार कर चुके हैं पाहू नृप ने कहा, श्रतः संसार भले ही कुछ कहे, हम एक दूसरे के लिये पति पत्नी हैं।' "नहीं, नृप नहीं । श्राप मेरा सर्वनाश न कीजिये पिता जी मुझे पापिन जान कर जीवित न छोडे गे' कुन्ती ने विनय पूर्वक कहा | पर पाए नृप पर तो काम भूत सवार था वह न माने । कहने लगे "युन्नी । तुम यदि इस बार मुझे निराश कर दोगी तो मैं कहीं का न रोगा । मेरा हृदय दो हक हो जायेगा । मैं तुम्हे विश्वास दिलाता हूँ कि जो हो, तुम्हें अवश्य ही अपनी अर्धानी बनाऊंगा और इन प्रकार तुम्ए कोई दोष नहीं लगने दूँगा ।
"जहा तक मेरे हृदय की स्वीकृति का प्रश्न है, पुन्नी बोली, मैंने प्राय स्वीकार कर लिया, पर पिता जी आपको मेरा पति बनाने से इन्कार कर रहे हैं। मैं अभी अभी अपने जीवन मे निराश होकर चिन्ता मग्न थी कि आप आ गए। आप इन बातों को छोडिये और पहले पिता जी से निर्णय कीजिए।"
"मेरी समक में यह नहीं आता कि तुम्हारे पिता जी मेरे साथ तुम्हारा विवाह करने से कार क्यों करते हैं ?
"नृप । प्रय में तुम्हे क्या बताऊ ! एक वहम है जो उनके मस्तिष्क पर छाया हुआ है । कुन्ती ने कहा ।
? वह पत्रा
"
"उन्हें पता चला है कि आप पारटू रोग से पीडित हैं । "मेने ही उन्हें उन भ्रम में फसाया दे। मैं पाना है कि तुम मेरी कामना वृति के लिए तैयार हो जाओ तो इस पदमयी पोल खुल जायेगी पास्ट बोल ।