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जैन महाभारत
दिन में ही, जागृत अवस्था में भी कुन्ती के स्वप्न देख रहे थे । कुन्ती उनके रोम में बस गई थी वह चित्र उनके नयनों में नाच रहा था।
x कुन्ती और उसके पिता बैठे थे चित्रकार वहां पहुंचा। चित्र, जो आदम कद था, अधकवृष्णि नृप के सामने प्रस्तुत कर दिया। उन्होने चित्र पर दृष्टि डाली। ऊपर से नीचे तक देखा और फिर एक दृष्टि - कुन्ती पर डाली । कह उठे । “कुन्ती लो देखो यह चित्र और तनिक । मुझे बताओ तो तुम में और इस में क्या अन्तर है।"
कुन्ती ने निकट पहुच कर चित्र देखा और उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह दर्पण के सामने खड़ी हो। मन ही मन चित्रकार की कला की प्रशंसा करने लगी और स्वमेव ही अपने चित्र पर मुग्ध हो गई। बोली कुछ नहीं। ___“यही अन्तर है न कि तुम सजीव और चित्र वाली कुन्ती निर्जीव है। पर लगता यही है कि अभी अभी बोल पड़ेगी।"
कुन्ती की वैसे ही गर्दन स्वीकारोक्ति मे हिल गई, जैसे हम विवश होकर किसी बात पर न चाहते हुए भी स्वीकृति दे डालने पर विवश हो जाते है। ___ "कितना रूप है कुन्ती पर । चित्रकार | तुम ने साक्षात् कुन्ती को इस पट पर उतार दिया है' नप बोले ।
"महाराज ' मेरी कला से आप सन्तुष्ट हैं, मुझे इस का अपार हर्ष है" चित्रकार बोला।
"मागा, जो चाहो । हम तुम्हारी कला से बहुत प्रभावित हुए । अब तुम ने हमारे एक दुःख को दूर कर डाला। नृप ने कहा, हम सोचा करते थे कि जब कुन्ती अपने पति के घर चली जायेगी। हम किसे देख कर आत्म विभोर हुआ करेंके ? पर अब वह चिन्ता दूर हो गई। बस यही चित्र है जो हमें दुखी न होने देगा।"
"महाराज | मेरी कला की आप के मुख से प्रशंसा हुई। बस मुझे बहुत कुछ मिल गया, आप की सेवा कर सका, बस यही मेरे लिए बहुत है।" चित्रकार बोला । “नहीं। हम तुम्हें तुम्हारी इच्छानुसार पुरस्कार देना चाहते हैं। __"पुरस्कार चाहे कितना ही कम मूल्य का हो, फिर भी बहुमूल्य होता है, आप से मैं क्या मांगू ? चित्रकार ने कहा । "अच्छा । तो तुम